आपको ये तस्वीर सोचने पर मजबूर कर देगी कि छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सुविधाएं कितनी सुचारू रुप से चल रही है। स्वास्थ्य मंत्रीजी को शायद ये तस्वीर दिखे भी ।इसके लिए सहायता की बात भी हो लेकिन बात सिर्फ इस तस्वीर में दिख रही गर्भवती महिला की नहीं है बल्कि उन हजारों महिलाओं की है जो इस प्रदेश के सुदूर इलाकों में है और उनको इलाज की दरकार है।ये तस्वीर तमाचा है उन लोगों के चेहरे पर जिनके जिम्मे इस गांव की विकास की चाबी है। लेकिन अखबारों में फोटो खिंचवाने और घोषणाएं करने के सिवा उनके पास भी कोई काम नहीं । क्योंकि यदि होता तो महज तीन किलोमीटर की सड़क बनाने में 20 साल नहीं लगते ।कितनी सरकारें आई गई लेकिन उनके खजाने में इतना पैसा नहीं है कि तीन किलोमीटर की सड़क बना दें।आज इसी सड़क की कमी ने एक गर्भवती महिला को खाट पर लाकर पटका और वो जिंदगी की दुआ मांगते चार कंधों के सहारे एंबुलेंस तक पहुंची।
ये तस्वीर रायपुर से सैकड़ों किलोमीटर दूर सरगुजा संभाग के कोरिया जिले के मनेन्द्रगढ़ विधानसभा क्षेत्र की हैं। मनेन्द्रगढ़ के आदिवासी बाहुल्य ग्राम पंचायत कटकोना के पारा नेवारी बहरा की बेहोश प्रसूता इस तरह खाट पर 3 किमी सफर के बाद एंबुलेंस तक पहुंचाई गई।
प्रसूता सुनीता पंडो पति सोनू लाल पंडो ने 3 जून को घर पर ही एक शिशु को जन्म दिया था। 12 जून की दोपहर उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। गांव के पंच रामनाथ पंडो ने सामाजिक कार्यकर्ता रामलाल से मदद की गुहार लगाई कि एक निजी वाहन की व्यवस्था कर भेंजें नहीं तो महिला की जान चली जाएगी। पर इस अंचल में इस तरह की सुविधा संभव कहां।
एंबुलेंस तो है पर चले कैसे ?
लिहाजा रामलाल जी ने सलका प्राथमिक स्वास्थ केंद्र के डा.सोनकर से एंबुलेंस के लिए मदद मांगी। डॉक्टर का कहना था कि उनके केंद्र का वाहन खड़गवां में किसी मरीज को लेकर आ रहा है लिहाजा अभी तुरंत मदद संभव नहीं है।रामलाल ने तब 108 को फोन किया। चिरमिरी से निकला 108 एंबुलेंस जब गांव की सरहद तक पहुंचा तो साढ़े 3 बज चुके थे। सरहद से रास्ता इतना खराब कि एंबुलेंस का जाना संभव नहीं। ग्रामाणों की मानें तो यहां पहुंचते एंबुलेंस भी हादसे का शिकार होते बची। अब गांव से 3 किलोमाटर दूर खड़ी एंबुलेंस तक बेहोश प्रसूता को खाट पर इस तरह लाया गया।
प्रसूता की जान बची
रामलाल कहते हैं पीड़िता के पति से बात हुई, उसका कहना है कि वह स्वस्थ हो रही है। हालत पहले से बेहतर है। पर यहां के कई गांव पहुंच विहिन हैं जहां बारिश में साइकिल भी ढोकर ले जाना पड़ता है।
रामलाल कहते हैं किसी तरह पीड़िता को मदद मिल गई इसका उन्हें संतोष है। वे बताते हैं यह इलाका आदिवासी बाहुल्य है। पंडो विशेष संरक्षित जनजाति के अंतर्गत आते हैं। पीड़िता जिस गांव में रहती है वहां सौ घर पंडो आदिवासियों के हैं।
यहां तक पहुंचने का रास्ता कच्चा है। सूखे दिनों में पंगडंडी ही सहारा है। बारिश होते ही आवाजाही के लिए पंचायत मुख्यालय तक पहुचने 12 किमी का सफर तय करना पड़ता है। राशन के लिए दिक्कतें आती हैं। इलाज की सुविधा तो दूर की बात है।