कहते है गरीबी जो ना कराए। लेकिन यदि मामला गरीबी के साथ लाचारी का भी हो तो इसे क्या कहेंगे। कोरोना काल में एक जगह से दूसरी जगह जाने के साधन नहीं है। जिनके पास पैसे हैं वो प्राइवेट गाड़ियां करके आराम से एक जगह से दूसरी जगह निकल लेते हैं । लेकिन मजदूरों का क्या । जिनके पास खाने के लिए पैसे नहीं ऐसे में यदि किसी मजदूर को किसी काम से एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़े तो वो क्या करेगा। एक बार के लिए वो उस जरुरी काम को छोड़ भी दे। लेकिन यदि बात उसकी संतान की हो तो फिर बात कहां रुकने वाली है। ऐसे ही एक मजदूर है धार के शोभाराम, जिन्होंने अपने बेटे की 10वीं सप्लीमेंट्री परीक्षा को दिलाने के लिए 10-20 नहीं बल्कि 105 किलोमीटर का सफर साइकिल से तय किया ।
गांव से जिला मुख्यालय तक चलाई साइकिल
शोभाराम, धार जिला मुख्यालय से 105 किलोमीटर दूर बयडीपुरा गांव में रहते हैं. उनका बेटा आशीष दसवीं में पढ़ता है. इस साल परीक्षा में उसे सप्लीमेंट्री आयी थी. अब दसवीं बोर्ड की सप्लीमेंट्री परीक्षाएं हो रही हैं. आशीष को परीक्षा देने ज़िला मुख्यालय धार आना था. लेकिन वो यहां तक पहुंचता कैसे. कोरोना के कारण बसें बंद हैं. कोई और सवारी गाड़ी भी नहीं चल रही. समस्या विकट थी और वक्त नहीं था । आशीष को परीक्षा देने समय पर धार पहुंचना था. कहीं कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. जब कोई वाहन और किसी से मदद नहीं मिली तो पिता शोभाराम ने बेटे आशीष को अपनी साइकिल पर बैठाकर परीक्षा केंद्र तक लाने का फैसला किया.
खुले आसमान के नीचे आराम
शोभाराम अपने बेटे आशीष को साइकिल पर बैठाकर धार के लिए जब निकले तो रास्ते में रात हो गई। लिहाजा उन्होंने मांडू में खुले आसमान के नीचे डेरा डाल दिया। क्योंकि जेब में ना तो पैसे थे और न ही किसी परिचित का घर । लिहाजा अगले दिन सुबह जल्दी उठकर शोभाराम ने साइकिल हांकी और अपने बेटे को पहुंचा दिया परीक्षा के दरवाजे पर । अगले दो दिनों तक भी परीक्षा होने के कारण दोनों पिता-पुत्र धार में ही खुले आसमान के नीचे एक बड़े स्टेडियम में रुके । परीक्षा खत्म हुई तो पिता ने एक बार फिर साइकिल पर पैडल मारी और वापस अपने गांव आ गया।