रायपुर। नवरात्र में लोग देवी मां के विविध रूपों की पूजा करते हैं। वहीं एक ऐसी भी जनजाति है, जो इस दौरान गुस्से में और शोक में डूबा रहता है। ये लोग महिषासुर वध को छल बताते हैं। खुद को असुर राज का वंशज बताने वाले यह लोग नवरात्र पर महिषासुर मर्दिनी की नहीं, बल्कि महिषासुर की पूजा करते हैं। छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के मनौरा विकासखंड में पौराणिक पन्नों से निकलकर असुर आज भी निवासरत हैं। यह कहते हैं कि हम अपने पूर्वज की मृत्यु पर खुशी कैसे मना सकते हैं।
नवरात्र पर नहीं करते रीति-रिवाजों का पालन
खुद को राक्षसराज महिषासुर का वंशज बताने वाली यह जनजाति जशपुर के मनोरा विकासखंड के जरहापाठ, बुर्जुपाठ, हाडिकोन, दौनापठा स्थानों पर निवास करती है। इसके अलावा बस्तर के कुछ हिस्सों मेें भी आदिवासी समुदाय महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं। असुर समुदाय में भैंसासुर की पूजा दीपावली के दिन होती है। स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि समाज के लोग दुर्गा पूजा में शामिल नहीं होते हैं। पूर्वजों के अनुसार उन्हें डर रहता है कि देवी प्रकोप से उनकी मृत्यु हो सकती है।
नवरात्र के पहले ही दिन कांकेर में संपूर्ण मूल आदिवासी समाज की ओर से विरोध किया गया। उन्होंने दुर्गा प्रतिमा के साथ महिषासुर की प्रतिमा न लगाने और रावण दहन पर रोक लगाने की मांग को लेकर राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन भी सौंपा। सर्व आदिवासी समाज, गोंडवाना समाज, युवा सर्व आदिवासी समाज ने कहा कि हजारों साल से हम भैंसासुर, महिषासुर की पूजा अपनी परंपरा के तहत करते आ रहे हैं। अपने खेतों, खलिहानों, सिवानों में हमारे पूर्वज महिषासुर को अपना अराध्य देव मानकर उसके प्रति अपनी धार्मिक आस्था रखते हैं।
पहाड़ी इलाके में रहने वाली इस जनजाति को अब अपने खत्म होने का डर सता रहा है। बदहाली का जीवन गुजार रही इस असुर जनजाति ने अब सरकार ने अपनी मदद और संरक्षण के लिए गुहार लगा रही है। असुर समाज के मनीराम कहते हैं कि असुरों की जनसंख्या पूरे देश मे करीब साढ़े सात हजार है। जबकि छत्तीसगढ़ में महज ढाई सौ की संख्या में ही ये बचे हैं। छत्तीसगढ़ में असुर समाज के कई युवा पढ़े-लिखे हैं, लेकिन नौकरी से वंचित है। खेती और शिकार आज भी इनका मुख्य व्यवसाय है।
प्रदेश में इनके समाज का एकमात्र युवक सरकारी नौकरी में है। स्थानीय लोगों ने असुर समाज को विशेष संरक्षित जनजाति का दर्जा देने की मांग की है। असुर समाज के गणेश राम कहते हैं विलुप्ती की कगार पर पहुंच चुकी जनजाति के लोगों को अभी तक विशेष संरक्षित जनजाति का दर्जा न मिलना सरकारी खामियों को उजागर करता है। जनजाति की शिक्षित युवती सीता बेग कहती है कि जिस तरह पहाड़ी कोरवाओं को नौकरियों में विशेष छूट मिलती है, उसी तरह उन्हें भी मिलनी चाहिए। जिससे इनका आर्थिक विकास हो सके।