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AMAZING NEWS- इस आश्रम में कपड़े पहनना है मना, प्यार को ना….लेकिन किसी के भी साथ सेक्स की है छूट

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Last updated: 2021/07/08 at 1:18 PM
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7 Min Read
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भारत के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो न्यूडिज़्म यहां जीने का बेहद पुराना और प्रचलित रहा है। ब्रिटिशर्स के आने के बाद ही यहां महिलाओं ने ब्लाउज़ पहनने शुरू किए। हिंदू और जैन ऋषि-मुनी भी इसी तरह रहा करते थे। अघोरी और नागा साधु आज भी बिना कपड़ों के रहते हैं। देश-दुनिया में आज कई न्यूडिस्ट कम्यूनिटीज़ चल रही हैं, जिनका मानना है कि यह जीने का नैचुरल तरीक़ा है। इन ग्रुप्स में शामिल लोग ख़ुद को बिना कपड़ों के ज्यादा कंफर्टेबल महसूस करते हैं, क्योंकि उनके पास छुपाने के लिए कुछ नहीं होता। इनका मानना है कि ये बिना किसी बनावट के रहते हैं और एक-दूसरे को उनके असली रूप में जान-समझ सकते हैं।

Contents
60 एकड़ की ज़मीन पर बसा है यह आश्रमआश्रम में कोई बंधन नहींALSO READ-बिग ब्रेकिंग : स्वास्थ्य मंत्री ने प्रदेश में लॉकडाउन को लेकर कही बड़ी बात…किसी के भी साथ कर सकते हैं सेक्सप्यार-नफरत जैसे अहसासों से उन्हें दूर रखा जाता है
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60 एकड़ की ज़मीन पर बसा है यह आश्रम

आज हम ऐसे ही एक आश्रम के बारे में बताने जा रहे हैं। केरल में कोझिकोड के वताकार ज़िले में लगभग 60 एकड़ की ज़मीन पर बसा है यह आश्रम। यहां रहते हैं सिद्ध समाज के अनुयायी। आज से ठीक सौ साल पहले 1921 में स्वामी शिवानंद परमहंस ने की थी सिद्ध समाज की स्थापना। एक ऐसा समाज, जहां कुछ भी बनावटी नहीं। एकदम प्राकृतिक तरीक़े से ज़िंदगी जीने में यकीन करते हैं ये। फिर चाहे बात खाने-पीने की हो, कपड़ों की, सेक्स की या आपसी रिश्तों की।

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कुर्ता और ब्लाउज़ पहनकर अंदर जाना मना है।’ यह लिखा है आश्रम के प्रार्थना कक्ष के बाहर। जहां प्रवेश करने के लिए यहां रहने वालों को अपने कपड़े उतारने होते हैं। आश्रम में रहने वाले सानंदन एस बताते हैं कि गोपम यानी सिद्ध विद्या का अभ्यास करते वक़्त और सबके साथ खाना खाते समय भी कपड़े नहीं पहनने होते।

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आश्रम में कोई बंधन नहीं

स्वामी शिवानंद का मानना था, ‘ज़िंदगी पंछियों जैसी होनी चाहिए। अपनी मर्ज़ी से जहां चाहे उड़ो। कोई बंधन नहीं और न ही कोई रिश्ता। पंछियों को ख़तरा बस तब होता है, जब वे नीचे आते हैं। हम मनुष्य भी उनकी तरह आज़ाद हो सकते हैं, अपनी सोच पर काबू करके। और यह मुमकिन है उर्ध्वगति यानी मोक्ष का मार्ग अपनाकर।’

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स्वामी जी की इसी सोच पर अमल करते हैं सिद्ध समाज के अनुयायी। कोझिकोड, कन्नूर, तिरुवनंतपुरम और सेलम में इनकी सभी शाखाओं में 300 से 350 अनुयायी हैं, जो आश्रम में ही रहते हैं। 29 साल के सानंदन एस का जन्म इसी आश्रम में हुआ। उनके लिए आश्रम और यहां रहने वाले लोग ही उनकी पूरी दुनिया हैं। सानंदन कहते हैं, ‘यहां हर किसी को, फिर चाहे वो महिला हो या पुरुष, अपना सेक्स पार्टनर चुनने का अधिकार है। लेकिन कोई किसी रिश्ते में नहीं बंधता। हम सेक्स करते हैं, पर बदले में प्यार की कोई उम्मीद नहीं करते।’

आश्रम में किसी भी तरह के धार्मिक रीति-रिवाज की सख्त मनाही है। यहां न किसी की कोई जाति है, न धर्म। सभी नामों के आगे ‘एस’ लगाया जाता है। एस यानी स्वामी शिवानंद। कहा जाता है कि स्वामी शिवानंद एक पुलिसवाले थे। एक पारिवारिक दुर्घटना के बाद ज़िंदगी का मतलब खोजने निकले और सिद्ध समाज की स्थापना कर दी। उनका मानना था कि कपड़े प्राकृतिक तरीके से जीने की दिशा में एक बाधा हैं, इसलिए उन्होंने सिद्ध समाज के सदस्यों से इस भार से मुक्त होने को कहा।

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उन्हीं के आदेशानुसार, यहां किसी भी तरह की निजी रुचियों पर पूरी तरह से बैन है। यहां रहने वाला हर शख्स समाज के सभी सदस्यों की देखभाल करेगा, लेकिन कोई किसी पर हक़ नहीं जमा सकता। इसी वजह से स्वामी शिवानंद ने हर तरह के रिश्ते-नातों को समाज से दूर रखा। यहां न कोई किसी की पत्नी है, न पति, न मां, न पिता और न ही भाई या बहन। क्योंकि ये सभी रिश्ते आपको दूसरे पर हक़ जमाने का मौका देते हैं।

किसी के भी साथ कर सकते हैं सेक्स

आप यहां आपसी सहमति से किसी के साथ भी सेक्स तो कर सकते हैं, लेकिन उसके साथ कोई रिश्ता नहीं निभा सकते। यह भी ज़रूरी नहीं कि आप हर बार एक ही शख्स के साथ संबंध बनाएं। आप अलग-अलग पार्टनर चुन सकते हैं। सदानंदन कहते हैं, ‘सेक्स एक नैचुरल प्रक्रिया है। तो किसी तरह का बंधन क्यों?’ समाज के सदस्यों के लिए एक नियम बस यही है कि किसी से मोह न करें, क्योंकि यह सामाजिक बंधन ही तमाम बुराइयों की जड़ हैं।

प्यार-नफरत जैसे अहसासों से उन्हें दूर रखा जाता है

आश्रम में पैदा होने वाले बच्चे 3 साल तक मां के पास रह सकते हैं। उसके बाद उन्हें आश्रम के ही स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया जाता है, जो एक अलग विंग में है। बच्चों को न तो प्यार किया जाता है और न ही डराया जाता है। प्यार-नफरत जैसे अहसासों से उन्हें दूर रखा जाता है, ताकि वे आश्रम के माहौल में ढल सकें। 18 साल की उम्र तक वे वहीं रहते हैं। उसके बाद बाकी अनुयायियों की तरह आश्रम में रहने लगते हैं। बच्चों को केरल बोर्ड के हिसाब से पढ़ाने के लिए शिक्षक आश्रम के बाहर से आते हैं।

 

अनुयायी आश्रम के खेतों में जो उगाते हैं, उसी से खाना बनता है। खाना पहले आश्रम के बाहर ग़रीब लोगों को दिया जाता है, उसके बाद बाकी लोग खाते हैं। हर रोज़ लगभग 100 ग़रीब लोग यहां खाना खाते हैं। आश्रम में आयुर्वेदिक दवाएं भी बनाई जाती है, जिसे बेचकर जो मुनाफा होता है, उससे यहां रहने वालों का गुज़र-बसर चलता है। आश्रम में सिर्फ शाकाहारी भोजन ही पकाया जाता है। एक तय रूटीन के हिसाब से लोग यहां काम करते हैं। सुबह 3 से 5.20, दोपहर 12 से 2.20, शाम 6 से 7 और रात को 7.30 से 9.50 के बीच प्राणायाम और सिद्ध विद्या का अभ्यास किया जाता है। 8 घंटे मेडिटेशन, 8 घंटे काम और 8 घंटे की नींद ज़रूरी है यहां।

 

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साभार-NBT

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