छत्तीसगढ़ का नाम अपनी खनिज संपदा और पुरातन वैभव के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। लेकिन एक और चीज है जो इस प्रदेश को सबसे ज्यादा पहचान दिलाती है और वो है लाल आतंक। आज भले ही नक्सली घटनाएं कम हो गई हो। नक्सलियों का नेटवर्क तोड़ने में फोर्स को काफी मदद मिली हो। लेकिन गाहे-बगाहे नक्सली फोर्स को नुकसान पहुंचा रहे हैं। सरकार लाख दावे करें । पुलिस लाख बातें करें। लेकिन हकीकत तो यही है कि बस्तर की जमीन नक्सलियों के लहू से कम और जवानों के खून से ज्यादा लाल हो रही है। पिछले कुछ सालों में फोर्स जहां हाईटेक हुई, सुविधाएं जुटाई गई, स्पेशल टास्क फोर्स गठित किए गए, सूचना तंत्र मजबूत किया गया और हां कई नक्सलियों को सरेंडर करवाकर फोर्स में शामिल किया गया। इन सब चीजों को देखकर लगने लगा था कि चलो अब शायद आंदोलन के पथ पर बंदूक थामने वाले विकास का दामन थामकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ जाएंगे। लेकिन ऐसा सोचना शायद सरकार की भूल थी। क्योंकि पिछले कुछ दिनों में जिस तरह का घटनाक्रम सामने आया है उसे देखकर ऐसा लगता है। मानो नक्सलियों ने फोर्स के साथ दो-दो हाथ करने के लिए अपना प्लान चेंज कर दिया है। 23 मार्च को नक्सलियों ने जवानों से भरी बस को उड़ा दिया। जिसमे 5 जवान शहीद हुए। अभी फोर्स इस हरकत का बदला लेने के लिए रणनीति बना ही रही थी कि इस घटना के 11 दिन बाद यानी 3 अप्रैल को तर्रेम के जंगलों में जो हुआ बेहद चौंकाने वाला था। वैसे तो जवानों और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ अक्सर होता रहता है। लेकिन जिस तरह से नक्सली हमले में 23 जवान शहीद हुए और एक जवान को अगवा किया गया। वो शायद सालों तक लोगों के दिमाग में रहेगा।इस घटना में नक्सलियों ने जवानों पर जिस तरह से हमला किया वो अपने आप में बिल्कुल अलग था। क्योंकि नक्सलियों ने पहले जवानों को गांव के अंदर आने दिया। फिर वापसी के वक्त उन पर हमला किया। और तो और जो जवान घायल होने के बाद पास के गांव में हमले से बचने के लिए गए वहां पहले से ही मौजूद नक्सलियों ने दोगुनी ताकत से हल्ला बोल दिया। नतीजा 23 जवानों की शहादत ।
जवान को रिहा करने का तरीका और नक्सलियों का संदेश
बीजापुर जिले के जोनागुड़ा गांव से 15 किलोमीटर अंदर के इलाके में CRPF के कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह को रखा गया था। गुरुवार दोपहर उन्हें प्रशासन की तरफ से तय मध्यस्थों और एक टीम को सौंप दिया गया। 5 दिनों से नक्सलियों के कब्जे में रहे कमांडो को जब छोड़ा जा रहा था, वहां करीब 40 नक्सली मौजूद थे। आसपास के 20 गांव के लोगों को बुलाया गया। जब कमांडो की रिहाई हो रही थी तो बीजापुर और सुकमा के कुछ पत्रकार भी वहां मौजूद थे।राकेश्वर सिंह की रिहाई से ज्यादा हैरान करने वाला उन्हें रिहा करने का तरीका है। नक्सलियों ने राकेश्वर सिंह की रिहाई के लिए वही जगह चुनी, जहां उन्होंने सुरक्षाबलों पर हमला किया था। यहां सैकड़ों लोगों को जुटाया गया। इस जनपंचायत में राकेश्वर सिंह को हाथ बांधकर पेश किया गया। इसकी कवरेज के लिए मीडिया वालों को बुलाया गया। दो नक्सली जवान के हाथ खोलते दिखे। रिहाई के वीडियो बनाए गए और राकेश्वर सिंह को मध्यस्थों के साथ भेज दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम में महिला नक्सली ने पूरे ग्रामीणों की अगवाई की। राकेश्वर के बदले एक ग्रामीण को छोड़ा गया। जिसे फोर्स ने पकड़ा था। ग्रामीण को छोड़ने के बाद ही राकेश्वर के हाथ खोले गए ।
इस हमले में कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
सवाल नंबर -1 नक्सलियों को इतने बड़े ऑपरेशन के बारे सूचना कैसे मिली। क्या नक्सलियों का सूचना तंत्र मजबूत है।या फिर फोर्स ने जिन पर भरोसा करके जानकारी साझा कि वो हरिराम नाई बन गया।
सवाल नंबर -2 नक्सली एंबुश लगाने और फिर हमला करने के बाद लौट जाते थे लेकिन इस बार जवान को अगवा किया गया।
सवाल नंबर -3 जवानों पर हैंड ग्रैनेड और रॉकेट लांचर से हमला हुआ। लेकिन दुर्गम इलाके में जहां इंसानों को पहुंचने में दिक्कत आती है। नक्सलियों को हाईटेक हथियार कैसे मिले?
सवाल नंबर -4 क्या आज भी नक्सलियों को शहरी नेटवर्क से भरपूर मदद मिल रही है और यदि ऐसा है तो सबसे पहले इनको कंट्रोल क्यों नहीं किया गया।
सवाल नंबर -5 बार-बार ये बात कही जाती है कि सर्चिंग के दौरान आने और जाने का रास्ता अलग-अलग होता है। बावजूद इसके इतनी बड़ी संख्या में जवानों की टुकड़ी एक ही लोकेशन से वापस क्यों लौट रही थी।
सवाल नंबर -6 क्या जवान इस बात को लेकर निश्चिंत हो गए थे कि जिस हार्डकोड मोस्ट वांटेड नक्सली हिड़मा के इलाके में वो है। उनके डर से नक्सली पीछे हट गए हैं।
सवाल नंबर 7- जिन नक्सलियों को जवानों की शहादत के बदले मौत मिलनी थी। उनसे सरकार को समझौता करना पड़ा। इसे किसकी जीत मानी जानी चाहिए ?
सवाल नंबर -8 यदि ग्रामीण को ही छुड़ाना था तो नक्सली किसी भी जवान को अगवा कर सकते थे और इसी तरह की पेशकश करते। लेकिन हमले के बाद जवान के बदले ग्रामीण ये शायद पहली बार हुआ है।
ऐसे कई सवाल शायद आपके भी मन में उठ रहे होंगे। लेकिन जितना भी घटना क्रम अब तक हुआ है। उसका मकसद सिर्फ एक था सरकार और फोर्स को एक बड़ा मैसेज देना कि अब भी हमारे अंदर कूबत है आपको ललकारने की। इस ललकार का जवाब क्या होगा ये आने वाला वक्त ही बताएगा। क्या सरकार और फोर्स इतनी बड़ी शहादतों के बाद कोई ऐसा कदम उठाएगी जिससे हमारे जवानों के परिवार को शांति मिल सकें। क्योंकि जवान हमारे देश और माटी की रक्षा बाहरी ताकतों से करते हैं। लेकिन ये छत्तीसगढ़ की बदनसीबी है कि यहां फोर्स घर के ही दुश्मनों से निपटने में पिछले 3 दशकों से लगी है। सरकारें आती हैं जाती है रणनीति बनती है। लेकिन नतीजा हर साल कहीं ना कहीं बड़े नक्सली हमले।
फोर्स को मिली है बड़ी सफलता,फिर भी।
ये कहना गलत ना होगा कि पिछले सालों के मुकाबले फोर्स ने नक्सलियों की कमर तोड़ी है। कई हार्डकोर नक्सली आज जेल में सजा काट रहे हैं। कई इनामी नक्सली सरेंडर के बाद सरकार की मदद कर रहे हैं। जिन इलाकों में हिंसा की खबरें आई हैं वो ऐसा दुर्गम क्षेत्र है जहां पर ऑपरेशन करना कोई बच्चों का खेल नहीं। वो भी तब जब नक्सलियों के हार्डकोर नेटवर्क को तोड़ने के लिए फोर्स जंगलों की खाक छान रही हो। फिर भी हर बार वहीं गलती दोहराई क्यों जाती है। फोर्स के ऊपर जब भी हमला हुआ है उसका पैटर्न एक ही रहा है। एंबुस लगाना और ऐसे इलाके तक जवानों को आने देना जहां सपोर्टिंग पार्टी को आने में थोड़ा समय लगे। आज फोर्स कितनी भी हाईटेक क्यों ना हो गई हो लेकिन नक्सलियों के गोरिल्ला वार का तोड़ शायद निकाल पाना मुश्किल है। नक्सलियों के लड़ने का तरीका सोचने का तरीका और मैसेज देना का तरीका आज भी उतना ही पुराना है जितना पहले था।नक्सलियों के मुकाबले फोर्स ज्यादा मजबूत हुई है फिर भी उनके गढ़ में सबसे ज्यादा नुकसान फोर्स के जवानों को ही उठाना पड़ता है।
सरेंडर कर चुके नक्सलियों की क्यों नहीं ली जाती मदद ?
ऐसा कई बार देखा जाता है कि जो नक्सली सरेंडर कर चुके हैं उन्हें किसी भी ऑपरेशन से दूर रखा जाता है।यदि किसी भी ऑपरेशन से पहले संबंधित जगह से सरेंडर कर चुके नक्सलियों की मदद ली जाए तो शायद उनसे लड़ने के लिए फोर्स को नया तरीका मिलेगा।