यह दर्दनाक व्यथा किसी हिन्दी फिल्म की कहानी नहीं, बल्कि इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था और सुविधा पर एक सवालिया निशान है। जहां इंसान की जिंदगी से ज्यादा कीमती पैसा है। किसी इंसान की जिंदगी भारत के अस्पतालों में तभी है, जब उसके पास लुटाने के लिए पैसा है। यहां डाॅक्टरी सेवा नहीं, बल्कि केवल नोट गिनने का पेशा है। जिसके पास पैसा नहीं, उनकी लाश भी उनके परिजनों को नहीं सौंपी जाती, इससे बड़ी हैवानियत भला और क्या हो सकती।
हापुड़। बीते डेढ़ साल से देश में कोरोना की कहर ने हर वर्ग को हलाकान किया है। उसने यह नहीं देखा कि कौन अमीर है, तो कौन गरीब है। कौन आरक्षित वर्ग का है, तो कौन अनारक्षित श्रेणी से है। उसके लिए हर कोई बराबर था। पर गजब की बात है कि देश के हर हिस्से में कोरोना पीड़ितों को उसकी हैसियत के हिसाब से तौला गया, उपचार मिला।
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ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश के हापुड़ से सामने आया, जहां करीब ढ़ाई माह पहले एक शख्स कोरोना की चपेट में आ गया। जिसे मेरठ रेफर किया गया, वहां उसकी मौत हो गई। परिजनों को इसकी जानकारी मिली, तो वे शव लेने अस्पताल पहुंचे, लेकिन पत्नी को यह कहकर लौटा दिया गया कि लाश के बदले 15 हजार रुपए जमा कराना होगा।
15 हजार को जुटाने में उसे 75 दिन लग गए
उस गरीब पत्नी के लिए दो मासूम बच्चों को पालना और फिर 15 हजार रुपए जमा करना किसी पहाड़ को खोदने से कम नहीं था, फिर भी उसने हिम्मत की और उस 15 हजार को जुटाने में उसे 75 दिन लग गए। जब वह अपने दोनों बच्चों के साथ पति के शव को लेने पहुंची, तब भी उसके सामने निराशा ही थी, क्योंकि उसके पति की लाश तीन पहले ही जला दिया गया। इस बात की खबर लगने के बाद से पत्नी ही नहीं, उन दोनों मासूमों का भी रो-रोकर बुरा हाल है, जिनकी यह कोशिश भी नाकाम हो गई।
पर यह एक ऐसा सवाल है जिससे हर तीसरा व्यक्ति पीड़ित है। मौत के बाद लाश पर भी कीमत तलाशते इन अस्पतालों और उनके प्रबंधकों को आखिर इतनी छूट क्यों दी जा रही है। क्यों इस मामले में विश्व के अन्य देशों से सीख नहीं ली जाती। हमारी परंपराओं को जब कोई अपनाता है, तो हम खुद को विश्वगुरु मान बैठते हैं, लेकिन अपनी नाकामियों को सुधारने का प्रयास क्यों नहीं करते।