राष्ट्राय स्वाहा के ध्येय को जीने वाले स्वाधीनता संग्राम के अनेकों क्रांतिकारियों में से कुछ योद्धा बहुत ही विरले हुए. जिनकी बहादुरी और स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रबल महात्वाकांक्षा ने उन्हें जनमानस की स्मृति में चिरस्थायी कर दिया. उनके शौर्य की कहानियों को दोहराए बिना राष्ट्र की स्वाधीनता का इतिहास बया ही नहीं किया जा सकता है. जब भी हम देश के क्रांतिकारियों, आजादी के संघर्षों को याद करते है तो हमारे अंतर्मन में एक खुले बदन, जनेऊधारी, हाथ में पिस्तौल लेकर मूछों पर ताव देते बलिष्ठ युवा की छवि उभर कर आ जाती है. मां भारती के इस सपूत का नाम था चंद्रशेखर आजाद. जिनकी आज पुण्यतिथि है.
आइये इस महान योद्धा के जीवन से जुड़े कुछ विशेष खंडों से आपको रुबरु कराते हैं
इस घटना के तार जुड़े है, 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए भीषण नरसंहार से जिसके बाद से ही देश भर के युवाओं में राष्ट्रचेतना का तेजी से प्रसार हुआ. बाद में जिसे सन 1920 में गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का रुप दिया. इस समय चन्द्रशेखर भी बतौर छात्र सडकों पर उतर आये. महज 15 साल की उम्र के चंद्रशेखर को आन्दोलन में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया. मामले में जब कोर्ट में जज के सामने इन्हें पेश किया गया तब कोई नहीं जानता था कि यहां भारत का इतिहास गढ़ा जाने वाला है जो सदियों के लिए इस देश की अमर बलिदानी परंपरा में एक उदाहरण जोड़ देगी. जज को दिए सवालों के जवाब ने चंद्रशेखर के जीवन को नई दिशा दी. उन्होंने जज के पूछने पर अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता, घर का पता जेल बताया. जिससे अंग्रेज जज तिलमिला उठा और उसने उन्हें 15 कोड़ों की सजा सुना दी. कच्ची उम्र के इस बालक के नंगे बदन पर पड़ता हर एक बेत (कोड़ा) चमड़ी उधेड़ कर ले आता. लेकिन इसके मुंह से बुलंद आवाज के साथ सिर्फ भारत माता की जय… वंदे मातरम के नारे ही सुनाई देते. वहां मौजूद लोगों ने आजाद की इस सहनशीलता और राष्ट्रभक्ति को देख दांतों तले उंगलियां दबा ली.
एमपी के झाबुआ में हुआ जन्म
आजादी की लड़ाई को नई दिशा देने वाले इस विरले योद्धा का जन्म झाबुआ जिले के भाबरा गांव (वर्तमान के अलीराजपूर जिले के चन्द्रशेखर आजाद नगर) में 23 जुलाई सन् 1906 को पण्डित सीताराम तिवारी के यहां हुआ था. इस वीर बालक को अपनी कोख से जन्म देने वाली और अपने रक्त व दूध से सींचने वाली वीरमाता थी जगरानी देवी. चंद्रशेखर ने अपना बचपन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में गुजारा था. जहां वे भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाया करते थे, जिसके कारण उनका निशाना अचूक हो गया था. उनका यह कौशल आगे चलकर भारत की स्वाधीनता के संघर्ष में खूब काम आया.
अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत तो आजाद ने अहिंसा के आंदोलन से की थी लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचारों और अपमान को अधिक समय तक नहीं सहा और मां भारती को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग चुन लिया. आजाद के साथ क्रांतिकारी तो कई थे लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल से उनकी खूब बनी. इनकी जोड़ी ने अंग्रेजों की जड़ें हिला कर रख दी.
एक समय तक देश के सभी युवा गांधीजी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन फरवरी सन् 1922 में ऐतिहासिक चौरी-चौरा घटना ने सशस्त्र क्रांति की चिंगारी को हवा दे दी. उस समय में ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा शहर में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में प्रदर्शनकारियों का पुलिस से संघर्ष हुआ. भीड़ पर काबू करने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसके बाद हालात तेजी से बिगड़े और भीड़ ने 22 पुलिसकर्मियों को थाने में बंद कर आग के हवाले कर दिया. इस घटना में हुई 3 नागरिकों और 22 पुलिसकर्मियों की मौत से आहत महात्मा गांधी ने तुरंत ही प्रभावी रुप से चल रहे असहयोग आंदोलन को रोक दिया. जिससे युवा क्रांतिकारियों के दल में भारी रोष उठा और उन्होंने अपना मार्ग गांधी से अलग कर लिया.
इसके बाद ही चंद्रशेखर आजाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े और उसके सक्रिय सदस्य बने. इसी दौरान उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 को काकोरी लूट को अंजाम दिया और फरार हो गए. ब्रिटिश सरकार ने इसमें हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को फांसी दे दी गई और अन्य को कठोर कारावास के लिए कालापानी भेज दिया गया.
अपने साथियों के बलिदान के बाद आजाद ने उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारी दलों को एकजुट करके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA)का गठन किया. जिसमें उनके साथी भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, जयदेव कपूर समेत कई क्रांतिकारी थे. जिन्होंने साथ मिलकर उग्र दल के नेता लाला लाजपतराय की हत्या का बदला अंग्रेजी अफसर सॉण्डर्स का वध करके लिया. आजाद कभी नहीं चाहते थे कि भगतसिंह खुद दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड की घटना को अंजाम दे क्योंकि वो जानते थे कि इसके बाद एक बार फिर संगठन बिखर जायेगा लेकिन भगत नहीं माने और इस घटना को अंजाम दिया गया.
जिसने ब्रिटिश सरकार की रातों की नींद हराम कर दी लेकिन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA)बिखर गया. आजाद ने असेम्बली बम कांड के मुकदमे में गिरफ्तार हुए अपने साथियों को छुड़ाने के लिए भरसक प्रयास किए, वे इस संदर्भ में पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी और पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मिले लेकिन बात नहीं बनी. उन्होंने वीरांगना दुर्गा भाभी (क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की धर्मपत्नी) को भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी रुकवाने के लिए गांधीजी के पास भी भेजा लेकिन गांधीजी ने भी उन्हें निराश कर दिया और उनके तीन और साथी आजादी के लिए फांसी पर झूल गए.
इन सारी घटनाओं के बावजूद चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों की नजरों से अब तक बचे हुए थे. वो अपने निशानेबाजी की कला के साथ वेश बदलने की कला में भी माहिर थे. जिसने अंग्रेजों के लिए उन्हें पकड़ने की चुनौती को और बढ़ा दिया था, कहा जाता है कि आजाद को सिर्फ पहचानने के लिए उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने 700 लोगों को भर्ती कर रखा था बावजूद उसके वो कभी सफल नहीं हो पाए. लेकिन उन्हीं के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सेंट्रल कमेटी मेम्बर वीरभद्र तिवारी आखिर में अंग्रेजो के मुखबिर बन गए और वो दिन आया जब मां भारती के इस लाल को इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क (वर्तमान में प्रयागराज के चंद्रशेखर आजाद पार्क) में घेर लिया गया.
ये दिन था 27 फरवरी 1931 का, आजाद अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने पहुंचे थे. वे दोनों पार्क में घूम ही रहे थे कि तभी अंग्रेज अफसर नॉट बावर अपने दल-बल के साथ वहां पर आ धमका जिसके बाद दोनों ओर से धुंआधार गोलीबारी शुरू हो गई. अचानक हुए इस घटनाक्रम में आजाद को एक गोली जांघ पर और एक गोली कंधे पर लग चुकी थीं. बावजूद इसके उनके हाव भाव सामान्य बने हुए थे. वे अपने साथी सुखदेव के साथ एक जामुन के पेड़ के पीछे जा छिपे और स्थिति को हाथ से निकलता देख अपने साथी सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया. इस दौरान आजाद ने 3 गोरे पुलिसवालों को भी ढेर कर दिया लेकिन अब उनके शरीर में लगी गोलियां अपना असर दिखाने लगी थीं.
वहीं नॉट बावर अपने सिपाहियों के साथ अंधाधुंध गोलियां बरसा रहा था, आखिरकार आजाद की पिस्तौल खाली होने को आ गई! अब पास की गोलियां भी खत्म हो चुकी थीं लिहाजा इस वीर योद्धा ने अपनी पिस्तौल में बची अंतिम गोली को स्वयं की नियति में ही लिखने का साहसिक फैसला कर लिया. आजाद के मूर्छाते नेत्रों में अब भी उनका ध्येय ‘आजाद थे, आजाद है और आजाद रहेंगे!’ स्पष्ट था. अब पार्क में सन्नाटा पसर गया नॉट बावर के तरफ से भी फायरिंग थम गई थीं आजाद हर्षित मन से जीवन की अंतिम घड़ियों में अपने देश की माटी और उसकी आबोहवा को महसूस कर रहे है और यकायक उनकी पिस्तौल आखिर बार गरजी और ये वो क्षण था जब उन्होंने उस पिस्तौल में बची अंतिम गोली को अपनी कनपटी पर दाग लिया था.
मां भारती ने अपने लाल को खो दिया था लेकिन उसका ख़ौफ अंग्रेजों में इस कदर हावी था कि गोरे सिपाही उसके मृत शरीर के पास तक आने से कतरा रहे थे और लगातार उन पर गोलियां बरसाए जा रहे थे. आखिर में चंद्रशेखर आजाद की इस बहादुरी से नॉट बावर इतना प्रभावित हो चुका था कि उसने खुद टोपी उतार कर आजाद को सलामी दी और उनकी पिस्तौल को (जिसे आजाद ‘बमतुल बुखारा’ कहते थे) अपने साथ अपने देश ले गया था, जिसे आजादी के बाद वापस भारत लाया गया.
इस महान क्रांतिकारी की पुण्यतिथि पर राष्ट्रीय चिंतक मोहन नारायण की इन चार पंक्तियों से हम इन्हें नमन करते है –
मैं भगतसिंह का साधक,
मृत्यु साधना करता हूँ |
मैं आज़ाद का अनुयायी,
राष्ट्र आराधना करता हूँ |