Thalassemia का शिकार होते हैं. शरीर में खून की कमी से होने वाली इस बीमारी की वजह से कुछ बच्चों की मौत भी हो जाती है. जो बच्चे सर्वाइव करते हैं वह भी सामान्य जीवन नहीं बिता पाते हैं. डॉक्टर बताते हैं कि थैलेसीमिया एक एक जेनेटिक (Genetic Disease) बीमारी है. यानी, ये माता-पिता से उनके बच्चों में फैलती है. बच्चे के जन्म से छह से आठ महीने बाद ही उसमें इसके लक्षण नजर आने लगते हैं. थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चे के शरीर में लाल रक्त कोशिकाएं (RBC) तेजी से खत्म होने लगती है और नई सेल्स नहीं बनती हैं. इस वजह से उसके शरीर में खून की कमी रहती है. इस बीमारी में आरबीसी की उम्र 10 से 25 दिन रह जाती है, जबकि सामान्य शरीर में ये 125 दिन तक रहती है. इस वजह से हर 20 से 25 दिन में खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है.
इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल के पीडियाट्रिक हीमटोलॉजी विभाग के डॉ. गौरव खारया ने आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि देश में हर साल थैलेसीमिया के 10 हजार नए मामले सामने आते हैं. इसके तीन गुना मरीज सिकल सैल के आते हैं. जिन्हें जीवन भर ब्लड ट्रांसफ्यूजन और आयरन चिलेशन की जरूरत पड़ती है.
इन दोनों ही मरीजों के लिए बोन मैरों ट्रांसप्लांट करना ही एकमात्र उपचार होता है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सिर्फ 20 से 25 फीसदी मरीजों को ही उनके परिवार से एचएलए आइडेंकिल डोनर मिल पाता है. जबकि 70 फीसदी मामलों में डोनर नहीं मिलता है. इससे मरीज का टांसप्लांट नहीं हो पाता है. ट्रांसप्लांट नहीं होने से मरीज को नियमित रूप से ब्लड चढ़ाने की जरूरत पड़ती है. जिसके काफी दुष्प्रभाव भी होते हैं.
यह जरूरी है कि बच्चा प्लान करने से पहले सभी जरूरी मेडिकल टेस्ट करा लिए जाएं. जिनसे पता चल जाए कि थैलेसीमिया तो नहीं है. प्रेग्नेंसी के दौरान भी सभी ब्लड टेस्ट करा लें. जिससे पता चल सके कि बच्चे को बल्ड से संबंधित कोई बीमारी तो नहीं है.
ये हैं बच्चों में थेलेसीमिया के लक्षण
हमेशा कमजोरी महसूस होना
थकान रहना
नाखून, आंख और जीभ पर पीलापन
बच्चे की ग्रोथ का थम जाना