“ग्राम सोनपुर में हल्बा समाज द्वारा मनाया गया अकति तिहार, आमाजोगानी और बीज निकरानी तिहार।”
नारायणपुर ऑफिस डेस्क :- जिला मुख्यालय नारायणपुर से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ग्राम सोनपुर जहां हल्बा आदिवासी समाज के लोग सदियों से रहते आ रहे हैं यह इलाका हल्बा आदिवासी बाहुल्य है हल्बा आदिवासी समाज को अपने रीति रिवाज को लेकर प्रसिद्धि प्राप्त है, हल्बा आदिवासी समाज द्वारा 03 मई मंगलवार के दिन अकति तिहार मनाया गया।
इस शुभ दिन में पुरखों को स्मरण करते हुये आमाजोगानी और बीज निकरानी तिहार मनाया गया। सुख, शाँति एवं समृद्धि की कामना के साथ सगे-संबंधियों से जोहार भेंट कर अकति तिहार की शुभकामनायें दी गईं।
“जोगाना”
प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने आदिवासी समाज में तीज-त्यौहारों की बहुलता है। आदिम सँस्कृति में नई फसल को कुलदेवी -देवता एवं पितृदेव को अर्पण के बाद ही ग्रहण करने की परंपरा है। आदिम समाज वानस्पतिक पदार्थों फूल -पत्ती, फल अथवा शाकभाजी को पहले पितृदेव को अर्पित करता है। उसके बाद ही वह वानस्पतिक पदार्थ आम जन के खाने और उपयोग के योग्य होता है। इसे ही उस फल-फूल, पत्ती अथवा शाकभाजी का “जोगाना” कहते हैं।
”माटी तिहार”
अकति का दिन हल्बा आदिवासी समाज के लिये विशेष महत्व रखता है। मिट्टी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व “माटी तिहार” अकति से पूर्व मनाया जाता है क्योंकि आम मिट्टी में पहले जोगता है। तात्पर्य यह कि गाँव में प्रायः सभी समाजों के लोग रहते हैं और अपने समुदाय विशेष के रीति-नीति को मानते हैं लेकिन हल्बा समाज पूर्वजों के स्मरण के महापर्व के रूप में अकतई के दिन ही सदियों से आमाजोगानी और बीज निकरानी तिहार मनाते आ रहा है।
शिक्षक एवं सामाजिक शोध में रूचि रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता भागेश्वर पात्र के अनुसार…
इस दिन सुबह से ही हल्बा समाज के पुरूष सदस्यों द्वारा नदी तट में चौकोर गड्ढानुमा आकृति बनाकर चारों ओर जामुन के डंठलों को गाड़ा जाता है। प्रत्येक कुल/गोत्र का पृथक-पृथक चोकोर गड्ढानुमा स्थान होता है। नये हँडी के कलश को गड्ढे के मध्य में रखा जाता है।पलाश के पत्तों से बने दोने जो कि 21 की सँख्या में होते हैं। इन दोनों में चार फल, तिल, मूंग, उड़द, चावल और कच्चे आम के टुकड़ों को रखा जाता है। इन दोनों में घी, पके केले का गुदा, दूध-दही को भी मिलाया जाता है।
फरसा (पलाश) के बने दोने में दीपक जलाकर रखा जाता है।नये हंडी में उसी गड्ढे से पानी भरकर र दोने में फूल-पान, चावल लेकर कुल/गोत्र विशेष के लोग महुआ, पीपल, बरगद, आम, बेहड़ा, बेल, सेहरा, कोलियरी, कुड़ई, पनका पीपल आदि वृक्षों की जड़ों में चावल अर्पित कर जल चढ़ाते हैं और उसी जल को चरणामृत समझकर सिर में धारण करते हैं। वर्तमान समय में इतने वृक्षों का एक ही स्थान पर मिलना संभव नहीं है इसलिये पाँच प्रकार के वृक्षों में पानी देने से भी काम चल जाता है।
महिलाओं का भी रहता है विशेष योगदान
हल्बा समाज में उड़द से बने व्यंजनों विशेषकर बड़ा,डुबकी बड़ा का विशेष महत्व हे। इस दिन महिलायें भीगे उड़द दाल को धोने नदी तट जाती हैं और एक दूसरे के माथे पर उड़द का टीका लगाकर मिल-भेंट करती हैं तथा इस पर्व की बधाई एवं शुभकामनायें देती हैं।
कच्चे आम के टुकड़े, गुड़, दूध, दही, घी, केले के गुदे को नारियल के साथ मिलाकर पहला भोग भाँजा को दिया जाता है।
वृक्षों को पानी देने के पश्चात पुरूष सदस्य वापस नदी तट में आते हैं और बिरन (हल्बी शब्द) पौधा और गोबर के कंडे को नदी तट में रखकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके पितृदेव/पूर्वज को याद करते हुये जल का अर्पण कर प्रणाम निवेदित करते हैं। कच्चे आम के टुकड़े, गुड़, दूध, दही, घी, केले के गुदे को नारियल के साथ मिलाकर पहला भोग भाँजा को देते हैं। बाद में सभी लोग प्रसादस्वरूप ग्रहण करते हैं।
चावल का टीका लगाकर एक दूसरे को दी जाती है शुभकामनाएं एवं बुजुर्गों का लिया जाता है आशीर्वाद।
आमाजोगानी का प्रसाद ग्रहण करने के बाद सगाजनों से मिल-भेंट के क्रम में चावल का टीका लगाकर एक दूसरे को शुभकामना देते हैं और बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं। नदी तट से विदा लेने के बाद नये हंडी के कलश में जल भरकर घर लेकर आते हैं।
चार की सँख्या में मिट्टी के ढेले चार हिंदी महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
नदी से लाये गये हंडी को चार मिट्टी के ढेलों के सहारे रखा जाता है। पितृदेव (डूमादेव) के नाम से होम लगाकर सेवा-पूजा की जाती है। चार की सँख्या में मिट्टी के ढेले चार हिंदी महीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पहला ढेला आषाढ़ माह, दूसरा ढेला सावन, तीसरा भांदो तथा चौथा ढेला क्वाँर महीने का संकेतक है।
“इस दिन आम के साथ सूखी मछली पकाई जाती है भांजे एवं रिश्तेदारों को आमंत्रित कर भोजन कराया जाता है।”
इस दिन घरों में उड़द बड़ा, डुबकी बड़ा और आम से बने व्यंजनों की प्रमुखता रहती है आम के साथ सुकसी झोर (सूखी मछली की तरी) अथवा मछली पकाई जाती है। समधी-सगा, भाँजा और रिश्तेदारों को निमंत्रित कर भोजन कराया जाता है। इस पर्व में मुर्गे और बकरों की बलि नहीं दी जाती।
“अनुष्ठान से लगाया जाता है चौमासा वर्षा का पूर्वानुमान।”
दूसरे दिन ढेलों के ऊपर रखे कलश का अवलोकन किया जाता है। देखा जाता है कि कौन-कौन सा ढेला भीग गया है। इसी आधार पर चौमासा वर्षा का अनुमान लगाया जाता है तथा कृषि संबंधी भावी तैयारी की जाती है। चारों ढेले पूरी तरह भीग जाने पर यह अंदाजा लगाया जाता है कि भारी वर्षा होगी, तीन ढेले भीगने पर अच्छी वर्षा की संभावना, दो ढेले भीगने पर मध्यम वर्षा एवं एक ढेला के भीगने पर कम वर्षा होने का अनुमान लगाया जाता है।
“इस दिन को इतना शुभ माना जाता है कि।”
अकतई में हल्बा समाज कृषि कार्य की पूर्व तैयारी के लिये खेतों में बोने के लिये बीज धान निकालता है। इस दिन को इतना शुभ माना जाता है कि तिथि पँचांग देखे बगैर ही विवाह का आयोजन होता है। आदिकाल से बस्तर की परंपरा में हल्बा समाज पूर्वजों को स्मरण करते हुये आमाजोगानी और बीज निकरानी तिहार को सुख-समृद्धि की कामना के साथ हर्षोल्लास से मनाते आ रहा है। सदियों से तीज-त्यौहार की परंपरा निर्बाध गति से चली आ रही है और युवा पीढ़ी का यह दायित्व बनता है कि अपनी सँस्कृति का सम्मान करें तथा इसे अक्षुण्ण रखने का हरसंभव प्रयास करें।