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जानिए कौन होते हैं संसदीय सचिव

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Last updated: 2022/06/10 at 10:42 AM
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12 Min Read
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उनकी शासन में क्या है भूमिका

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संसदीय सचिव पद नाम ऐतिहासिक है

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अंग्रेजी शासन के दौरान भारतीय शासन व्यवस्था की ओर यदि नजर डालें तो उस दौर में संसदीय सचिव मंत्रियों की सहायता करने वाले प्रशासनिक अधिकारी थे; और इंग्लैंड में भी कमोवेश यही व्यवस्था थी! इंग्लैंड की संसदीय व्यवस्था के अनुरूप हाउस ऑफ लॉर्ड (उच्च सदन ) के सदस्य हाउस ऑफ कॉमन ( निम्न सदन ) के सदस्यों को सिर्फ अपने हाउस की संसदीय कार्य व्यवस्था में भाग लेने का अधिकार था !इसलिए दूसरे सदन की कार्यप्रणाली में सहायता के लिए संसदीय सचिवों की व्यवस्था की गई है !

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भारत में भी अंग्रेजों की शासन व्यवस्था के समय से ही संसदीय सचिव की भूमिका शासन प्रणाली में रही है! अंग्रेजों के समय संसदीय सचिव मंत्रियों की सहायता के लिए होते थे; आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और संसदीय सचिव मंत्री के सहायकों या कार्यपालिका के सहायक के रूप में अपने कार्य करते रहे; यदि संवैधानिक प्रणाली की बात करें तो केंद्रीय स्तर पर मंत्रियों का सबसे निचला स्तर संसदीय सचिव का ही होता था !

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एक महत्वपूर्ण प्रश्न वर्तमान समय में यह भी है; कि संसदीय सचिव पद क्या है; और कौन है संसदीय सचिव; तो अंग्रेजों की शासन व्यवस्था से अब तक समय अनुसार इस पद की व्यवस्था में बदलाव आता रहा है वर्तमान में संसदीय सचिव मंत्रियों के सहायक के रूप में देखे जा रहे हैं; इनका प्रादुर्भाव वर्ष 2003 के संविधान के 91 संविधान संशोधन के द्वारा हुआ है इस प्रकार संसदीय सचिव राज्यों में मंत्रियों के सहायक अथवा सहायक मंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं; जो कार्यपालिका के ही भाग है !
संसदीय सचिव पद का इतिहास ;
आज के संसदीय सचिव पद को समझने के लिए हमें इतिहास का अवलोकन करना होगा !

आजादी के बाद 70 के दशक तक आमतौर पर एक ही राजनीतिक पार्टी की सत्ता केंद्र और राज्यों में शासन व्यवस्था पर काबिज थी ! 80 के दशक से राज्यों में स्थानीय राजनीतिक दलों का अभ्युदय हुआ और केंद्र और राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की सत्ता अस्तित्व में आई; और इसी समय से छोटे-छोटे राजनीतिक दल आपस में गठबंधन करके सत्ता पर काबिज होने लगे और इस नई राजनीतिक व्यवस्था का परिचय भारतीय शासन पद्धति से हुआ !

छोटे-छोटे दलों के नेता पद और सत्ता के लालच में व्यापक पैमाने पर दलबदल करने लगे ! अलग अलग राजनीतिक दल अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के नेताओं को मंत्री पद रेवड़ीओ की तरह बांटने लगे; कई बार तो कैबिनेट स्तर के मंत्री बिना विभाग के ही सत्ता में अपनी भागीदारी बनाने लगे !इस प्रकार की इस व्यवस्था ने भारतीय राजनीति और संसदीय शासन व्यवस्था को उसके न्यूनतम स्तर पर ला दिया; और इस गठबंधन की राजनीति का नकारात्मक प्रभाव शासन व्यवस्था और संसदीय प्रणाली पर पड़ने लगा क्योंकि बड़ी संख्या में मंत्री बनाए जाने लगे; जिनसे शासन व्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ने लगा वही इस व्यवस्था की विश्वसनीयता भी खतरे में पड़ गई!

इस प्रकार इस गठबंधन और दलबदल और अकारण मंत्रियों की नियुक्ति का नकारात्मक प्रभाव देखते हुए संसद ने इस पर रोक लगाने के लिए समय-समय पर कानूनों का निर्माण किया है इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण कानून वर्ष 2003 (संविधान का 91 वां संशोधन ) में संसद द्वारा पास किया गया; जिसकी व्यवस्था के अनुरूप अब राज्यों में विधायिका की कुल सदस्य संख्या का सिर्फ 15% ही सदस्य मंत्री बनाए जा सकते हैं

इस प्रकार संसद ने कार्यपालिका अथवा मंत्री परिषद की संख्या निर्धारित कर दी अब राज्यों में सत्ता पर काबिज दल अपनी मर्जी से मंत्रियों की संख्या निर्धारित नहीं कर सकते थे जैसा कि संविधान के 91 संविधान संशोधन के अंतर्गत राज्य की विधायिका का की संख्या का 15% ही मंत्री बनाए जाने के योग्य है !इस प्रकार यदि छत्तीसगढ़ और हरियाणा की बात करें जहां 90 विधानसभा सीटें हैं तो यहां सिर्फ 13 व्यक्ति ही मंत्री बनाए जा सकते हैं वहीं उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की बात करें तो वहां 402 विधानसभा सीटों में सिर्फ 60 विधायकों को ही मंत्री पद दिया जा सकता है !

इस प्रकार अब तक भारतीय राजनीति में देखा गया है कि गठबंधन की सरकार हो या किसी एक राजनीतिक दल की सारे क्षेत्रों;जातियों;और धर्म के लोगों को मंत्रिपरिषद में प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया जाता है ! संविधान के 91 में संशोधन के बाद; सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए राजनीतिक दलों ने एक नया रास्ता तलाश किया जो संसदीय सचिव के रूप में हम लोगों के सामने हैं; संसदीय सचिव प्रत्यक्ष मंत्री मंडल के सदस्य ना होकर भी उसके सदस्य हैं; आमतौर पर संसदीय सचिव मंत्रियों के साथ किसी विभाग से संबद्ध कर दिए जाते हैं जो मंत्रियों की सहायता करते हैं; और बदले में उन्हें वही सुविधाएं और लाभ प्राप्त होता है जो मंत्रिमंडल का सदस्य होने पर किसी मंत्री को प्राप्त होती है ! हालांकि यह व्यवस्था संविधान की मूल भावना के विपरीत है फिर भी संसदीय सचिव पद की व्यवस्था आज भारत के लगभग प्रत्येक राज्य ने अपना ली है !
संसदीय सचिवों की नियुक्ति और शपथ ग्रहण दृरू
संवैधानिक पदों के लिए नियुक्ति और शपथ ग्रहण की व्यवस्था राज्यपाल द्वारा संपन्न की जाती है अर्थात राज्यपाल द्वारा कैबिनेट और राज्य स्तर के मंत्रियों को विभागों का आवंटन और शपथ ग्रहण कराया जाता है !इसके विपरीत संसदीय सचिव पद गैर संवैधानिक होने के कारण आमतौर पर मुख्यमंत्री द्वारा संसदीय सचिवों की नियुक्ति और शपथ ग्रहण की प्रक्रिया पूर्ण की जाती है !

संसदीय सचिव पद का संवैधानिक पक्ष

वर्ष 2003 में संविधान के 91 में संविधान संशोधन में अनुच्छेद 164 (1 A ) जोड़ा गया और मंत्री परिषद की संख्या को विधायिका की संख्या का 15% निश्चित कर दिया गया किंतु राज्य सरकारों ने जनप्रतिनिधित्व के कानूनों और लाभ के पद की परिभाषा में परिवर्तन करके मंत्री परिषद की संख्या का विस्तार कर दिया जिन राज्यों में अधिकतम 10 से 12 लोग ही मंत्री बनाए जाने थे वहां इन परिवर्तनों के बाद 25 से 30 मंत्रियों की संख्या हो गई है इस प्रकार यदि देखा जाए तो संसदीय सचिव का पद असंवैधानिक है और यह संविधान की मूल भावना का उल्लंघन भी है !

संसदीय सचिव के पद को लेकर विवाद

संविधान के 91 में संशोधन के बाद से अस्तित्व में आए संसदीय सचिव के पद पर विवाद कई है; जो इस पद के अस्तित्व में आते ही आरंभ हो गए थे ! इनमें सबसे पहला और प्रमुख विवाद लाभ के पद को लेकर था ! मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के अलावा विधायिका का कोई भी सदस्य मंत्रिमंडल का सदस्य बनता है ; तो यह लाभ का पद माना जाएगा और ऐसा सदस्य अयोग्य करार दिया जाएगा और वह विधायिका का सदस्य भी नहीं रह पाएगा !

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 (1)(।) और अनुच्छेद 191 (1)(।) में लाभ के पद का उल्लेख है परंतु लाभ के पद को परिभाषित नहीं किया गया है !

उपरोक्त अनुच्छेदों में विधानसभा सदस्यों को लाभ का पद धारण करने की मनाही है ; यहां पर जनप्रतिनिधित्व की धारा 9 (ं) का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें विधायिका के सदस्यों ( सांसदों और विधायकों ) को लाभ का पद पर आसीन होने से रोका गया है

लाभ के पद पर विधायिका के सदस्यों को आसीन होने से रोकने की मूल भावना के पीछे लोकतंत्र की शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत है ; इस सिद्धांत में चुने गए प्रतिनिधियों (विधायक ) का एक भाग सरकार या कार्यपालिका का भाग होता है वहीं शेष विधायिका के सदस्य सदन के माध्यम से सरकार की कार्यप्रणाली पर नियंत्रण लगाते हैं! संसदीय लोकतंत्र प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका अतिछादीत (वअमतसंचे ) होते हैं ऐसी दशा में यदि विधायिका के सदस्य कार्यपालिका में सम्मिलित हो जाएं तो संसदीय नियंत्रण की प्रक्रिया विफल हो सकती है ! यही कारण है कि लाभ के पद की अवधारणा संसदीय प्रणाली का आधार है ;इसलिए ही संसदीय सचिव के पद को संविधान की मूल भावना का उल्लंघन न्यायालयों द्वारा समय-समय पर बताया गया है

(1) दिल्ली विधानसभा में संसदीय सचिवों की नियुक्ति को लेकर हुए विवाद के बाद चुनाव आयोग ने ; इस पद को लाभ का पद मानकर विधान सभा के सदस्यों की सदस्यता समाप्त करने की सिफारिश कर दी ; इसके बाद दिल्ली विधानसभा ने 1997 के एक्ट में संशोधन करके संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद की श्रेणी से हटा दिया और सरकार में संसदीय सचिव के लिए द्वार खोल दिए !

(2) हालिया विवाद छत्तीसगढ़ की विधानसभा का है; (April 2022 ) जहां विपक्ष ने संसदीय सचिवों के अधिकारों पर सवाल उठाए ; विपक्ष ने सरकार से पूछा कि जब कई प्रदेशों में संसदीय सचिवों की नियुक्ति बंद कर दी गई है और विधानसभा की कार्रवाई में उनका अधिकार नहीं है तो सदन की पुस्तकों में उनका उल्लेख क्यों है !

साथ ही विपक्ष ने यह भी मांग उठाई कि संसदीय सचिवों के अधिकारों की परिभाषा को पटल पर रखा जाए जिससे संशय की स्थिति विधानसभा में समाप्त हो !

निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि; संसदीय सचिव मंत्रिमंडल में बैक डोर से एंट्री लेने वाले वह सदस्य हैं; जो संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करते हैं; परंतु हमें यह भी याद रखना होगा कि हमारा संविधान जनप्रतिनिधित्व की भावना का पोषक है ; और परंपरागत रूप से समाज के प्रत्येक वर्ग को मंत्रिमंडल में स्थान देने की परंपरा रही है! सरकारों को भी संसदीय सचिवों की नियुक्ति के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संसदीय सचिवों की संख्या से मंत्रिमंडल पर अतिरिक्त भार ना हो; और मंत्रियों की संख्या अधिक होने से सरकार की कार्यप्रणाली में किसी भी प्रकार की गिरावट ना आए और ना ही संविधान की मूल भावना शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन हो !

साभार: newsnextjdp

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