गरियाबंद- दीपावली पर्व के पूर्व सुआ नृत्य की हलचल शुरू हो चुकी है। सुबह से घरों में सुआ नृत्य के लिए बालिकाओं की टोली दस्तक दे रही है। इससे पर्व की रौनकता बढ़ती जा रही है।दीपावली नजदीक आते ही गांवो में ता नारी ना मोर सुआ वो की गीत गूंजने लगी है। केवल महिलाएं ही नहीं छोटी- छोटी बालिकाएं भी साड़ियां पहनकर गांवों के घरों में सुआ नाचने निकल पड़ी है। सुआ नृत्य करने आई महिलाओं को यथायोग्य उपहार देकर ससम्मान विदा कर रही है। लक्ष्मी पूजा 12 नवंबर को है, लेकिन 29 अक्टूबर से सुआ नाचने महिलाएं निकल पड़ी है।घर-घर जाकर किया सुआ नृत्य:टोकनी में मिट्टी से सुआ बनाकर गली-मोहल्लों में बच्चियों की निकली टोली,सुआ नृत्य व इन गीतों शिव पार्वती, गणेश, राम-सीता, लक्ष्मण पर आधारित गीत गाते हैं। गांव के देवी देवताओ को गीतों से याद कर खुशहाली की कामना कर रहे हैं।गरियाबंद में में छत्तीसगढ़ी पारंपरिक व सांस्कृतिक सुआ गीत नृत्य की धूम है। सप्ताह भर पूर्व से सुआ नर्तक दल नृत्य और मनमोहक गीत से आशीष देने पहुंच रहे हैं।यह छत्तीसगढ़ का सबसे लोकप्रिय नृत्य है। छत्तीसगढ़ी ग्रामीण जीवन की सुंदरता बरबस इस नृत्य से छलक पड़ती है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र की महिलाएं व किशोरियां यह नृत्य बड़े ही उत्साह व उल्लास से उस समय प्रारंभ करती हैं, जब छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल धान के पकने का समय पूर्ण हो जाता है। यह नृत्य दीपावली के कुछ दिन पूर्व प्रारंभ होता है और इसका समापन शिवगौरी के विवाह आयोजन के समय दीपावली के दिन रात्रि के समय होता है। इस नृत्य में महिलाएं प्रत्येक घर के सामने गोलाकार झुंड बनाकर ताली की थाप पर नृत्य करते हुए सुन्दर गायन करती हैं। टोकरी जिसमें धान भरा होता है, उसमें मिट्टी से बने दो सुआ शिव और गौरी के प्रतीक के रूप में श्रद्धापूर्वक रखे जाते हैं। नृत्य करते समय महिलाएं टोकरी गोलाकर वृत के बीचों-बीच रख देती है, और सामूहिक रूप से झूम-झूमकर ताली बजाते हुए सुआ गीत गाती हैं। वस्तुतः सुआ नृत्य प्रेम नृत्य है जिसे शिव और गौरी के नाम से व्यक्त किया जाता है।
लुप्त हो रही सुआ नृत्य और गीत की परंपरा को हमे सहेजने और संवारने की ज़रूरत है- धरमीन बाई सिन्हा
बुजुर्ग महिला धरमीन बाई सिन्हा कहती है सुआ नृत्य और गीत की परंपरा धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर है। दशहरा पर्व के बाद से ही घरों-घरों सुआ नर्तक दलों की दस्तक शुरू हो जाती थी, जो अब नहीं दिखाई दे रही है। हालांकि पुरानी परंपरा और सभ्यता के अनुसार बड़ों की जगह बच्चों को सुआ नृत्य के लिए शहर के घर-दुकानों में घुमते देखा जा रहा है।
उन्होंने पुराने दिनों को याद करते हुए आगे बतलाया शहर में दशहरा के बाद से ही सुआ नर्तक दलों की मौजूदगी नजर आती थी, लोग स्वयं होकर नर्तक दलों को घर के सामने और आंगन में नचाते थे। त्योहार की खुशी जाहिर करने की यह एक परंपरा है। नर्तक दलों को लोग अपनी क्षमतानुसार रुपए-पैसे, अनाज देते थे। आम लोगो का छत्तीसगढ़ी लोक-कला संस्कृति को जो प्रोत्साहन मिलना था, वो हमारे यहाँ नहीं मिल रहा है नवरात्र पर दुर्गा पूजन की परंपरा है।अब इसमें गरबा उत्सव भी देखा जा रहा है और कुछ गरबा कार्यक्रम में सुआ गीत पर नृत्य करते देख गया है जिसे लोग बेहद पसंद भी कर रहे है, कई अन्य आयोजनों पर जैसी भव्यता होती है, खर्च किए जाते हैं। उस तरह से सुआ नृत्य पर फोकस नहीं किया जाता।अगर सुआ नृत्य पर वैसा ही ध्यान और भव्यता से कार्यक्रम किया जाये बड़ा मंच दिया जाये और हमारी परंपरा को बड़े स्तर पर पेश किया जाए तो छत्तीसगढ़ का या लोकनृत्य किसी मायने में किसी से कम नहीं,छत्तीसगढ़ी लोककला में लोकनृत्य संपूर्ण प्रमुख छत्तीसगढ़ के जनजीवन की सुन्दर झांकी है। राग-द्वेष, तनाव, पीड़ा से सैकड़ों कोस दूर आम जीवन की स्वच्छंदता व उत्फुल्लता के प्रतीक लोकनृत्य यहां की माटी के अलंकार है। छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य सुआ यहां की लोककला का प्राणतत्व है। यह मानवीय जीवन के उल्लास – उमंग-उत्साह के साथ परंपरा के पर्याय हैं।