पांडुका — सुबह नींद खुलते ही हाथ सीधे माटी कला की ओर खींचे चली आती है। इसे ईश्वर की कृपा कहें या फिर मूर्ति बनाने की जुनून। अब दिल और दिमाग दोनों अच्छी लुकिंग देने में लगा रहता है।
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जी हां हम बात कर रहे हैं जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर पांडुका के रहने वाले मूर्तिकार पुरुषोत्तम चक्रधारी की। इन्हें मूर्ति बनाने में इतना अच्छा लगता है कि बस रात में नींद भी यही सोच कर आती है कि सुबह मेरे द्वारा बनाए गए मूर्तियों में बनावट अलग ही प्रतीत होगी। इन्होंनें एक चर्चा में बताया कि मूर्ति बनाने की कला पैतृक है। बचपन से ही मूर्ति बनाने सीख रहा हूं। वैसे भी मनुष्य मरते दम तक सीखता ही है। मेरे दादाजी, पिताजी, मैं खुद और अब तो मेरे बच्चे भी मूर्ति बना रहे हैं। तब भी मूर्ति बनते थे लेकिन अब कार्य करने की शैली बदला है। चक्रधारी बताते हैं कि कला की दुनिया एक अलग तरह की है। पूर्ण होने के बाद आत्मिक सुख एवं शांति का आभास होता है। संसार की तमाम सुख, दुख और भाग दौड़ भूल जाते हैं। आजकल छोटी मूर्तियां की अपेक्षा बड़ी मूर्तियां के डिमांड ज्यादा है पहले कम कीमत पर रंग आसानी से उपलब्ध हो जाते थे लेकिन अब महंगे दाम लगते हैं तथा हाथ की बजाय मशीन से भी बहुत सारे काम हो रहे हैं। पहले डेढ़ सौ से लेकर ₹500 में 5 फीट की मूर्तियां बना लेते थे परंतु आज बीस हजार से लेकर 80 हजार में मूर्तियां तैयार करते हैं। कई मूर्तिकार तो लाखों रुपया लगा लेते हैं।
स्नातक होने के बाद चुना मूर्तिकला
पुरुषोत्तम चक्रधारी कॉलेज की पढ़ाई कर चुके हैं वर्तमान में मूर्ति कला पर ज्यादा फोकस करते हैं। यह इसे श्रद्धा और आस्था से जोड़कर देखते हैं। मिट्टी से तो सृजन करते ही है साथ ही साहित्यिक सृजन में भी योगदान देते हैं अब तक इन्होंने पांच पुस्तक लिखी हैं। प्रकाशित होने के बाद पाठक इन्हें पढ़ भी रहे हैं। गीत, कविता कलम के स्याही से लिपिबद्ध करते हैं। देशभर के पत्र पत्रिकाओं में लगातार साहित्यिक क्षेत्र में माटी की खुशबू बिखेर रहे हैं। परिवार चलाने के लिए इनके इलेक्ट्रॉनिक का दुकान है जिसमें टीवी, रेडियो, घड़ी, कूलर, पंखा बनाने का काम भी करते हैं। इनसे पूछा गया कि आप समय का मैनेज कैसे करते हैं तब इन्होंने बताया कि प्रत्येक कार्यों के लिए शेड्यूल बना लिया हूं और उसी के अनुसार काम में लगा रहता हूं अब तो मेरे बेटे भी मुझे इस कार्य में सहयोग करते हैं। नवरात्र सिर पर है। 3 अक्टूबर से पहले हर हाल में मूर्तियों की डिलीवरी हो जानी चाहिए। मेरे द्वारा जितनी मूर्तियों को आकार दिया जा रहा है उन्हें ले जाने के लिए 2 अक्टूबर का समय दिया गया है उस हिसाब से इसे पूर्ण करने में लगा हूं। दिन-रात अब तो इसे पूर्ण करने के चक्कर में समय का आभास नहीं रहता। सुबह से शाम हो जाती है और रात मैं भी अचानक नींद खुल जाती है तो मूर्तियों पर ध्यान चला जाता है और सुबह होते ही फिर से कामों में लग जाता हूं।
शासन से नहीं मिलता किसी प्रकार का कोई सहयोग
चक्रधारी ने बताया कि छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा अभी तक कोई सहयोग नहीं मिला है। आजकल तो मिट्टी की कीमत भी बढ़ी हुई है। कोरोना काल में तो मूर्तिकारों को गुजर बसर करना मुश्किल हो गया था बावजूद इसके किसी भी योजना ने लाभ नहीं पहुंचया। तत्कालीन प्रदेश सरकार के द्वारा माटी कला बोर्ड का गठन किया गया था जिसमें भी कोई फायदा नहीं हुआ है। वैसे भी मूर्तिकारों के आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए योजनाएं आनी चाहिए। नए सीख रहे मूर्तिकार के प्रशिक्षण की सुविधा होनी चाहिए। मूर्ति बनाते वक्त समिति वाले ऑर्डर देकर चले जाते हैं ऐसे मौके पर सस्ते दरों पर मूर्तियों को पूर्ण करने के लिए लोन कीसुविधा होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति मजबूत होने के बाद कला में निखार आएगी।