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Kachheri: फिल्मों में बजती हैं तालियां, लेकिन असल ज़िंदगी में मिलती है तिरस्कार – आखिर पीरियड्स को लेकर हमारी सोच इतनी पिछड़ी क्यों है?

Neeraj Gupta
Last updated: 2025/07/12 at 8:34 AM
Neeraj Gupta
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4 Min Read
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📍 ठाणे | महिला अधिकार, Kachheri: “एक महिला अपने जीवन के लगभग 7 साल केवल पीरियड्स की तकलीफ में गुजारती है” – ये कोई फिल्मी डायलॉग नहीं, बल्कि हकीकत है। हर महीने आने वाला यह दर्द, असहजता और मानसिक थकान का दौर महिलाओं के जीवन का हिस्सा है। लेकिन क्या समाज इसे उतनी गंभीरता से लेता है जितनी वह पर्दे पर फिल्म देखते वक्त तालियां बजाकर दिखाता है?

Contents
🚨 ठाणे में शर्मनाक हरकत – लड़कियों से करवाई गई ‘पीरियड्स जांच’🩸 पीरियड्स – एक जैविक प्रक्रिया, लेकिन सामाजिक शर्म का कारण क्यों?🎥 ‘पैडमैन’ की तालियां और असलियत का तिरस्कार📊 कुछ चौंकाने वाले आंकड़े:🧠 मानसिक और सामाजिक प्रभाव📢 अब वक़्त है – शर्म नहीं, संवाद का✍️ निष्कर्ष

🚨 ठाणे में शर्मनाक हरकत – लड़कियों से करवाई गई ‘पीरियड्स जांच’

हाल ही में महाराष्ट्र के ठाणे जिले के एक स्कूल में शर्मनाक घटना सामने आई, जहां स्कूल प्रशासन ने लड़कियों के कपड़े उतरवाकर यह जांचने की कोशिश की कि कौन पीरियड्स में है। यह न सिर्फ उनकी निजता का उल्लंघन है, बल्कि यह दिखाता है कि हमारी सोच आज भी कितनी दकियानूसी और स्त्री-विरोधी है।

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🩸 पीरियड्स – एक जैविक प्रक्रिया, लेकिन सामाजिक शर्म का कारण क्यों?

भारत में आज भी पीरियड्स को लेकर शर्म, चुप्पी और ग़लत धारणाएं फैली हुई हैं। कई घरों में लड़कियों को मंदिर में प्रवेश करने से मना कर दिया जाता है, खाना बनाने नहीं दिया जाता, या उन्हें ‘अशुद्ध’ मानकर अलग बैठा दिया जाता है। ये मानसिकता न सिर्फ महिलाओं को हीनता का अहसास कराती है, बल्कि उन्हें उनके ही शरीर से दूर करने का काम करती है।


🎥 ‘पैडमैन’ की तालियां और असलियत का तिरस्कार

2018 में आई फिल्म पैडमैन में अक्षय कुमार ने जब सस्ते सैनिटरी पैड्स बनाने की लड़ाई लड़ी, तो सिनेमाघरों में तालियां गूंजीं। लेकिन असल ज़िंदगी में जब कोई महिला पीरियड्स के दर्द से जूझती है या सैनेटरी पैड खरीदने जाती है, तो उसे आज भी शर्म का लिफाफा थमा दिया जाता है।


📊 कुछ चौंकाने वाले आंकड़े:

  • भारत में 50% से ज़्यादा लड़कियां पीरियड्स के दौरान स्कूल नहीं जातीं।

  • 23 मिलियन लड़कियां हर साल पीरियड्स से जुड़े कारणों से स्कूल छोड़ देती हैं।

  • ग्रामीण भारत में अब भी 60% महिलाएं कपड़ा, राख या पुराने अखबार का इस्तेमाल करती हैं।


🧠 मानसिक और सामाजिक प्रभाव

पीरियड्स को लेकर बनी सामाजिक चुप्पी, महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी, तनाव, और मानसिक असहजता को जन्म देती है। जब स्कूल या समाज उन्हें छिपने या शर्मिंदा होने के लिए मजबूर करता है, तो यह उनका नैतिक बल और शिक्षा दोनों छीन लेता है।


📢 अब वक़्त है – शर्म नहीं, संवाद का

हमें अब यह समझने की ज़रूरत है कि पीरियड्स कोई गंदगी नहीं, बल्कि जीवन का एक प्राकृतिक हिस्सा हैं।
जरूरत है:

  • स्कूलों में मासिक धर्म शिक्षा को अनिवार्य करने की

  • सैनेटरी पैड्स को टैक्स-फ्री करने की

  • सार्वजनिक स्थानों पर सैनिटरी वेंडिंग मशीन लगाने की

  • और सबसे ज़रूरी – सोच बदलने की


✍️ निष्कर्ष

जब फिल्में समाज को आईना दिखा सकती हैं, तो समाज उस आईने को तोड़ने की बजाय खुद को संवारने का प्रयास क्यों नहीं करता?
पीरियड्स पर ताली तभी सच्ची होगी, जब लड़कियों को शर्म से नहीं, सम्मान से देखा जाएगा।
अब ज़रूरत है संवेदना से कार्रवाई की – क्योंकि खून बहता है, इज्ज़त नहीं।

📰 Grand News – जहां मुद्दे सिर्फ दिखाए नहीं जाते, समझाए जाते हैं।

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