गरियाबंद में गजब का उत्साह देखने को मिला बच्चों में : कोरोना पर भारी पड़ते दिखा। छत्तिशगढ़ का लोकपर्व छेर छेरा:बच्चों ने कोरोना को ध्यान रखते हुए मास्क पहन कर छेर छेरा माँगने,निकले , छेरी के छेरा छेर मरखनिन छेरछेरा, माई कोठी के धान ला हेर हेरा, छेरछेरा देबे ओ बाई, छेरछेरा देबे ओ गौटिया, तभे टरबो….’ इस तरह के गीत गाते हुए बच्चे-बच्चियां मास्क पहन कर घर-घर पहुंचे। द्वार पर खड़े होकर एक सुर में गाने लगे। बच्चों को देखकर घर की महिलाएं समझ गईं कि आज छेरछेरा पर्व यानी दान मांगने का पर्व है। महिलाएं सूपे में भरकर धान-चावल लाईं और जितने भी बच्चे मांगने आए थे, उन्हें मुठ्ठी भर-भरकर धान-चावल बच्चों की पोटली में डाला। दान मिलते ही बच्चे ‘कोठी अन्न-धन से भरपूर रहे’ का आशीर्वाद देकर अन्य घरों की ओर चल पड़े।
यह नजारा पुराना मंगल बाज़ार, बजरंग चौक, संतोषी नगर और शहर से सटे कोक़डी, मजरकट्टा जैसे ग्रामीण इलाकों में दिखाई दिया। सुबह 7-8 बजे से ही बच्चों की टोली हाथ में पोटली लेकर दान मांगने निकली। बच्चे जिस घर में भी जाते, घर की महिलाएं-पुरुष कुछ न कुछ रुपए या अनाज बच्चों की झोली में खुशी-खुशी अवश्य डालते। दान देने के महत्व को दर्शाने वाला छत्तीसगढ़ का पारंपरिक पर्व छेर-छेरा श्रद्धा-उल्लास से मनाया जा रहा है ।
दान देने से होता है लाभ
ऐसी मान्यता है कि पौष माह की पूर्णिमा को सुबह स्नान, पूजा पाठ करके दान देने से सालभर घर में बरकत रहती है। अन्नपूर्णा माता व अन्न देवता की विशेष कृपा दृष्टि होती है। ग्रामीण इलाकों में गेहूं, चावल, दाल आदि अनाज को कोठी में रखा जाता था इसलिए ‘माई कोठी के धान ला हेर हेरा’ आवाज लगाकर निवेदन किया जाता है कि हे माई, अपने घर की कोठी में रखे अनाज में से कुछ दान में दे दो, दान देने से अनाज में बढ़ोतरी होगी।
दान दे रही बुजुर्ग महिला धरमीन बाई सिन्हा ने बतलाया कि
ऐसी मान्यता है कि पौष पूर्णिमा पर अनाज का दान करने से राजा बलि के समान सुख-समृद्धि व यश की प्राप्ति होती है ,यह अन्न दान का महापर्व है। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है। यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है। उत्सवधर्मिता से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है। इस दौरान लोग घर-घर जाकर अन्न का दान मांगते हैं। वहीं गांव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं।
70 वर्षीय बुजुर्ग महिला बुद्धि बाई केला जिन्हें केला दीदी के नाम से जाना जाता है उन्होंने बतलाया
महादान और फसल उत्सव के रूप त्यौहार मनाया जाने वाला छेरछेरा तिहार हमारी समाजिक समरसता, समृद्ध दानशीलता की गौरवशाली परम्परा का संवाहक है। इस दिन ‘छेरछेरा, कोठी के धान ल हेरहेरा‘ बोलते हुए गांव के बच्चे, युवा और महिलाएं खलिहानों और घरों में जाकर धान और भेंट स्वरूप प्राप्त पैसे इकट्ठा करते हैं और इकट्ठा किए गए धान और राशि से वर्ष भर के लिए कार्यक्रम बनाते हैं। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के किसानों में उदारता के कई आयाम दिखाई देते हैं। यहां उत्पादित फसल को समाज के जरूरतमंद लोगों, कामगारों और पशु-पक्षियों के लिए देने की परम्परा रही है। छेरछेरा का दूसरा पहलू आध्यात्मिक भी है, यह बड़े-छोटे के भेदभाव और अहंकार की भावना को समाप्त करता है।
ग्रहणी रेणुका सिन्हा ने कहा
धान का कटोरा कहलाने वाला भारत का एक मात्र प्रदेश छत्तीसगढ़ एक कृषि प्रधान प्रदेश है। यहां पर ज्यादातर किसान वर्ग के लोग रहते हैं। कृषि ही उनके जीवकोपार्जन का मुख्य साधन होता है। यही वजह है कि कृषि आधारित जीवकोपार्जन और जीवन शैली ही अन्न दान करने का पर्व मनाने की प्रेरणा देती है। अपने धन की पवित्रता के लिए छेरछेरा तिहार मनाया जाता है। क्योंकि जनमानस में ये अवधारणा है कि दान करने से धन की शुद्धि होती है।
कब हुई सुरुवात
कब हुई सुरुवात
बाबू रेवाराम की पांडुलिपियों के अनुसार, कलचुरी राजवंश के नरेश “कल्याणसाय” व मण्डल के राजा के बीच विवाद हुआ, और इसके पश्चात तत्कालीन मुगल शासक अकबर ने उन्हें दिल्ली बुलावा लिया। कल्याणसाय 8 वर्षो तक दिल्ली में रहे।
8 वर्ष बाद कल्याणसाय राजधानी रतनपुर वापस पंहुचे। जब प्रजा को राजा के लौटने की खबर मिली, प्रजा पूरे जश्न के साथ राजा के स्वगात में राजधानी रतनपुर आ पहुँची। प्रजा के इस प्रेम को देख कर रानी “फुलकेना” द्वारा रत्न और स्वर्ण मुद्राओ की बारिश करवाई गई और रानी ने प्रजा को हर वर्ष उस तिथि पर आने का न्योता दिया। तभी से राजा के उस आगमन को यादगार बनाने के लिए छेरछेरा पर्व की शुरुवात की गई। राजा जब घर आये तब समय ऐसा था, जब किसान की फसल भी खलिहानों से घर को आई, और इस तरह जश्न में हमारे खेत और खलिहान भी जुड़ गए।
पौराणिक मान्यता :
पौराणिक मान्यता के अनुसार आज ही के दिन भगवान शंकर ने माता अन्नपूर्णा से भिक्षा मांगी थी, आज ही मां शाकम्भरी जयंती है। मां दुर्गा ने पृथ्वी पर अकाल और गंभीर खाद्य संकट से निजात दिलाने के लिए शाकम्भरी का अवतार लिया था. इसलिए इन्हें सब्जियों और फलों की देवी के रूप में भी पूजा जाता है।