गिरीश जगत, गरियाबंद
देवभोग। जिले के देवभोग में मौजुद जगन्नाथ जी के मंदिर का इतिहास 150 साल से भी ज्यादा पुराना है। इलाके के 84 गांव के जनसहयोग से इस मंदिर को बनाने में 47 बरस लग गए। यह एक मात्र ऐसा मंदिर है जंहा भक्त अपने भगवान को लगान पटाने की परपंरा को आज भी जीवित रखे हुए हैं। लगान के रूप में प्राप्त होने वाले अनाज का एक भाग पुरी के जगन्नाथ जी के भोग के लिए जाता है। इसी के चलते यहां का नाम देवभोग पडा।
वास्तुकला व अनोखी पध्दति से निर्मित यह वह मंदिर है, जिसका निर्माण इलाके भर के 84 गाँव के ग्रामीणांे के सहयोग से हुआ है। सीमेंट के बजाए इस मंदिर को बनाने मैं बेल ,चिवडा, बबूल एवं अन्य देशी सामग्रियांे का उपयोग इमारत को जोडने के लिए किया गया है। यही वजह है कि इसे बनाने मे 1 दो नहीं, बल्कि पूरे 47 साल लग गए। ब्रिटिश काल में यह क्षेत्र जमींदारांे के अधिकार में था। 1820 में मिच्छकुंड नामक एक ब्राम्हण भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति लेकर देवभोग से लगे झराबहाल पहुंचे। आस्था जगी तो इसके निर्माण के लिए इलाके भर के लोग जुट गए। इस मंदिर में विराजित मूर्ति जगन्नाथ जी के 52 रूपो में से दधि ब्राम्हण स्वरूप है। पुरी के अलावा जगन्नाथ जी के अन्य मंदिरो में गरूण व अरूण स्तंभ की पुजा होती है। पर यहां स्थापित गरूण अरूण की मूर्तियां मंदिर को अद्वितीय शोभा प्रदान करती हैं। आस्था का केन्द्र बन चुके इस मंदिर में प्रति माह भगवान के 12 उत्सव मनाया जाता है। एकादशी व रथ यात्रा में श्रध्दालुओ का भारी जमावाडा होता है।
मंदिर निर्माण पुरा होने के बाद 84 गांव के ग्रामीणांे ने जगन्नाथ जी के झराबहाल स्थित पुराने स्थल पर एकत्र होकर, मंदिर संचालन के लिए जगन्नाथ जी को लगान स्वरूप पहले फसल का हिस्सा भेंट करने का शपथ लिया था। बकायादा एक शिला ( पत्थर ) को स्थापित कर शपथ शीला का नाम भी दिया गया। हालांकि इस पर अब राधा कृष्ण की प्रतिमा स्थापित कर मंदिर का निर्माण कराया गया है। मंदिर संचालन की यह व्यवस्था आस्था का प्रतीक तो है ही, वहीं दुसरे मंदिरों की तुलना में संचालन की अनोखी पद्धति भी है। लगान का एक हिस्सा जगन्नाथ पुरी भोग चढाने के लिए भेजा जाता है। इलाके के सुंगधित चावल, जगन्नाथ जी का प्रिय भोग कालामूंग को ग्रहण कर पुरी पीठ ने कूसूम भोग नामक इस नगरी का नामकरण देवभोग के नाम से कर दिया, तब से ही देवभोग के नाम से यह नगरी विख्यात हुआ है।