आप भी क़ागज पर समोसे खाते हैं? तो हों जाएं सावधान
बहुत से लोग सफर के दौरान कागजों में पूड़ी, पराठे, रोटियां लपेट कर ले जाते हैं जिनके पसीजने से अखबारी टुकड़ों की स्याही इनमें पूरी तरह समा जाती है। इस बात से बेखबर लोग इन खाने की चीजों का लुत्फ उठाते है। इस ब्लॉग का उद्देश्य यह है कि अखबारों में लिपटे खाद्य सामग्री आपके स्वास्थ्य पर क्या असर डालती है?
क्या होता है इससे ?
अगर आप अखबारों के टुकड़ों में खाने पीने की सामग्री लेकर खाते हैं तो निश्चित ही इनमें होने वाली स्याही का उपयोग आपकी सेहत को बिगाड़ सकता है, क्योंकि इस स्याही का प्रभाव अगर शरीर पर पड़ता है तो कैंसर भी हो सकता है । जो लोग स्ट्र्ीट फूड के दीवाने है तो अक्सर समोसे और जलेबी का आनंद पेपर पर लकर करते है । साथ ही गर्म-गर्म भजिया टमाटर की चटनी के साथ भी जब परोसा जाता है तो पेपर के टुकड़ों में ही परोसा जाता है। अनुसंधान बताते है कि अखबारों की स्याही में अनेक रसायन होते है जिनका अंश खाद्य समाग्री के माध्यम से सीधे हमारे पेट में जाता है । यानि हम जब अखबारी कागज में खाने-पीने की चीज़े रखते है तो और जब उन्हें खाते है तो सीधे हमारे पेट में वो जाकर खतरनाक असर दिखाते है।आपने भी गौर किया होगा चीजों को रखते ही उनकी स्याही का कुछ हिस्सा खाने पीने की चीजों में लग जाता है। अब बात करते है वे क्या चीजे होती है जो छपाई के स्याही बनाने में प्रयोग की जाती है।
प्रापीलेन ग्लाकोल, कार्बन काले पिगमेंट एवं सफेद पिगमेंट जैसे टीटेनियम डाक्साईड, ट्यूलोनि इत्यादि।
इन रसायानों का शरीर के तंत्रिका तंत्र पर बुरा असर पड़ता है। जिसके दुष्प्रभाव से अवसाद, थकान, सिरदर्द और अनिद्रा के होती है। इसके साथ ही शीशा एक ऐसा तत्व है जिसके शरीर में जाने से कैंसर की संभावनाएं प्रभावशाली होने लगती है कभी-कभी यही शीशा का अंश शरीर में घुलने से लाईलाज बिमारियां भी होती है ।जाने अनजाने में हम कई बार पेपर को सोखता पेपर के तौर पर इस्तेमाल कर लेते है । खास तौर पर मध्यम वर्गीय परिवार में यह अक्सर देखा गया है कि तैलीय चीजों को अखबारी कागज में रखने का चलन है। याद रखिए इससे पाचन तंत्र पर बहुत की गहर असर पड़ता है। भूख कम लगना, पेट से संबंधित गड़बड़ियां होना, नपंुसकता, चिड़चिड़ापन इत्यादि हो सकते है।
आजकल स्याही या इंक दो प्रकार की होती है एक तरल और दूसरा पेस्ट के इंक के रूप में
दोनों में ही कमाबेश पिगमंेट और व्हीकल का इस्तेमाल होता है।
हांलाकि रंगीन स्याही बनाने में बहुत सार रसायनों का प्रयोग किया जाता हैै जो प्राकृतिक और रसायनिक पिगमेंट से बने होते है। इसी तारतम्य में और भी कुछ बिन्दुएं है जिन पर यहंा चर्चा करना जरूरी हो जाता है। जैसे प्लास्टिक और रंगीन खाद्य पदार्थ वैज्ञानिक अनुसंधान कहते है। कि प्लास्टिक का प्रयोग कम से कम ही करें । आम तौर पर छोटे ठेले व होटलों में जो चाय परोसी जाती है वे प्लास्टिक की बनी होती है। वैज्ञानिक रिसर्च बताते है कि प्लास्टि के कप में चाय न पीऐं क्योंकि गर्म चाय प्लास्टिक के साथ रसायिनक क्रिया कर शरीर को नुकसान पहूॅचाने का काम करते है। प्लास्टिक नान-बायोडिग्रेडेबल है । अर्थात ये एक एसे पदार्थो से बना होता है जो पर्यावरण को नुकसान पहूॅचाते है।
वैज्ञानकि रिसर्च की माने तो प्लास्टिक को पूरी तरह नष्ट होने में 500 से 1000 साल तक लग सकते है। आम तौर पर जमीन पर पड़ा हुआ प्लास्टिक कई मायने में जमीन की उर्वरा को ही नुकसान पहॅंचा सकता है। जमीन पर पड़ा हुआ प्लास्टिक भूजल स्तर को भी प्रभावित कर सकता है। दूसरी बात यहां जो लागू होती है वे है कि खाने-पीने की चीजों को रंगीन थैली में न रखें
रंगीन खाद्य समाग्री का प्रयोग न करें । खाने पीने की चीज़ों में रंगों का प्रयोग तो प्रचीन काल से चला आ रहा है मगर वे सभी प्राकृतिक अवस्था में ही तैयार किये जाते थै । मगर ये आजकल टाक्सिक पदार्थों के बने होते है और इनसे खासतौर पर बच्चों में हाईपर टेंशन, कैंसर एलर्जी का खतरा हो सकता है। जो खाद्य सामग्रियों पर डाले गए रंगों के दुष्परिणाम के कारण हो सकता है ।
संेट या परफ्यूम का प्रयोग ज्यादा न करें क्योंकि ये भी आजकल घातक केमिकल से तैयार किये जा रहें है।
अगर आप किसी ऑफसेट प्रिंटिंग प्रेस में जाते है तो कपड़ा मुंह में ढक कर रखें
मच्छर भगाने की मशीन या अगरबत्ती या उपयोग न करें खास तौर पर जिससे मच्छर तेजी से भागते हो वे और भी ज्यादा हानिकारक होते है।
होटल में चटक लाल सब्जी का प्रयोग न करें उनमें रंग मिलाया जाता है।
पूजन सामाग्री में कुमकुम का प्रयोग न करें उनमें घातक रसायन मिले होते है।
कम्यूटर में कार्टेेज में भी घातक केमिकल होते है । छूने के बाद हाथ धोएं