जगदलपुर। बस्तर संभाग मुख्यालय में 75 दिनों तक चलने वाले रियासत कालीन बस्तर दशहरा में बस्तर संभाग के समस्त ग्रामों के देवी-देवताओं को बकायदा तहसीलदार जगदलपुर के द्वारा बस्तर दशहरा में शामिल होने के लिए आमंत्रण भेजा जाता है। जिसमें 6166 देवी-देवताओं के ग्रामीण प्रतिनिधि बस्तर दशहरे की पूजा विधान को संपन्न कराने के लिए विशेष तौर पर शामिल होते हैं।
इसके साथ ही हजारों देवी देवताओं के साथ लाखों ग्रामीण बस्तर दशहरा शामिल होते हैं। नवरात्र के पंचमी तिथि में विशेष तौर पर बस्तर के राजपरिवार के द्वारा दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी मंदिर में पूजा अनुष्ठान के साथ मावली परघाव पूजा विधान में शामिल होने के लिए मावली माता सहित समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया जाता है।
इसके साथ ही बस्तर संभाग के मुख्यालय जगदलपुर में देवी-देवताओं के आस्था का महाकुंभ में शामिल होने के लिए बस्तर संभग सहित बस्तर से लगे पड़ोसी राज्यों के देवी-देवताओं सहित सभी ग्रामों के देवी-देवता को लेकर ग्रामीण बस्तर दशहरा में शामिल होते हैं। बस्तर दशहरे पर आमंत्रित देवी-देवताओं की संख्या को देखते हुए कहा जा सकता है कि, बस्तर दशहरा बस्तर के वनवासी जनजातियों की आस्था का महाकुुंभ हैं।
बस्तर राजवंश की कुल देवी दंतेश्वरी के विभिन्न रूप इस पर्व पर नजर आते हैं, राज परिवार की कुलदेवी दंतेश्वरी के बस्तर में स्थापित होने के बाद यहां कई ग्रामों की देवी को दंतेश्वरी के रूप में पूजी जाती है,
जिसमें मांई दंतेश्वरी सोनारपाल, धौड़ाई, नलपावंड, कोपरामाडपाल, फूूलपदर, बामनी, सांकरा, नगरी, नेतानार, सामपुर, बड़े तथा छोटे डोंगर में देखा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर बस्तर की स्थानीय मूल देवी मावली माता को माना जाता है। यही कारण है कि बस्तर दशहरा का सबसे आकर्षण का केंद्र मावली परघाव पूजा विधान के रूप में हमें देखने को मिलता है।
बस्तर दशहरे में दंतेवाड़ा से यहां पहुंचने वाली मावली माता की डोली मणिकेश्वरी के नाम पर दंतेवाड़ा में देखने को मिलती है। क्षेत्र और परगने की विशिष्टता एवं परम्परा के आधार पर मावली माता के एक से अधिक संबोधन देखने-सुनने को मिल जाते हैं। जैसे घाट मावली (जगदलपुर), मुदरा (बेलोद), खांडीमावली (केशरपाल),
कुंवारी मावली (हाटगांव) और मोरके मावली (चित्रकोट) है। मावली माता की स्थापना माड़पाल, मारकेल, जड़ीगुड़ा, बदरेंगा, बड़ेमारेंंगा, मुण्डागांव और चित्रकोट में हैं।
इसी तरह हिंगलाजिन माता की स्थापना विश्रामपुरी, बजावंड, कैकागढ़, बिरिकींगपाल, बनियागांव भंडारवाही और पाहुरबेल में है। इसी तरह कंकालीन माता, जलनी माता की भी स्थापना बस्तर के विभिन्न गांवों में है।
देवी-देवताओं को उनकी शक्ति, पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप दिये गये सम्मान में भैरमदेव को सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता है। भैरम के और भी रूप हैं, जिसमें जद भैरम, बूढ़ा भैरम और पीला भैरम मिलते हैं। घोड़ावीर,
कालवाम, गायतादेव, सिंगदेव, जांगड़ादेव तथा भीमादेव भी पूजे जाते हैं। इनके साथ चल रहे भक्त घंटी, मोहरी, नगाड़ा, तुरही, शंख आदि बजाते हुए चलते हैं। सिरहा खुले बदन अपने आप को कोड़े मारता हुआ चलता है।
कहा जाता है कि उस पर देवी की सवारी आती है। जुलूस के आगे-आगे चल रही भक्तों की भीड़ सिरहा के लिए रास्ता छोड़ती हुई चली जाती है, साथ ही पुजारी लोग आंगा देव को कंधे पर रखकर आड़े तिरछे दौड़ते हुए चलते हैं, जिससे जुलूस में शामिल नागरिकों में भय की भावना उत्पन्न होती है और वे दौड़ते हुए आंगा देव के सम्मान में किनारे हट कर रास्ता दे देते हैं।
संभागीय मुख्यालय जगदलपुर में आमंत्रित देवी-देवताओं के प्रतीक स्वरूप उनके पुजारी या सिरहा की अगुवाई में प्रतीक चिन्ह एवं पूजा पात्र उपकरण यथा डोली, लाट, छत्र, बड़गा आदि लेकर नगर के विभिन्न स्थलों में डेरा जमाते हैं
और पूजा आदि में भागीदारी निभाते हैं। जन-जन की भागीदारी इस पर्व को बस्तर की लोकतांत्रिक परम्परा का अनूठा स्वरूप प्रदान करती है। अपनी तमाम खूबियों के बीच कई टन वजनी दो मंजिला विशालकाय रथ की परिक्रमा पर्व का खास आकर्षण है, जिसे अपने कैमरे मेें कैद करने देशी-विदेशी पर्यटकों में होड़ लगी रहती है।
बस्तर दशहरा पूजा विधान के कार्यक्रम को गौर से देखा जाए तो यह स्पष्ट है की बस्तर दशहरा के प्रारंभ होने के साथ ही संभाग मुख्यालय के भंगाराम चौक में स्थित काछन देवी का स्थान है जहां काछन गादी पूजा विधान के तहत काछन देवी के द्वारा बस्तर दशहरा के प्रारंभ करने एवं निर्विघ्नं संपन्न करने हेतु
आशीर्वाद प्राप्त होने के बाद भी बस्तर दशहरा के विभिन्न पूजा विधान प्रारंभ हो जाते हैं। जोगी बिठाई के रूप में माता मावली के मंदिर से परंपरानुसार जोगी परिवार के देवी देवताओं के साथ पूजा विधान संपन्न कर रियासत कालीन खडक़ अर्थात तलवार धारण कर दशहरा के निर्विघ्न संपन्नता की कामना के साथ 9 दिनों तक एक स्थान पर बैठ जाता है।
इसके साथ ही नवरात्रि की पूजा विधान के साथ रथ परिक्रमा बस्तर दशहरा का सबसे आकर्षण का केंद्र प्रारंभ हो जाता है। रथ परिक्रमा पूजा विधान में कई देवी-देवताओं के आह्वान के साथ अग्रसर होता है। बेल पूजा विधान के तहत ग्राम सरगीपाल से जोड़ा बेल लाकर दंतेश्वरी मंदिर में स्थापित किया जाता है।
जोड़ा बेल की स्थापना को मणिकेश्वरी और दंतेश्वरी की स्थापना के रूप में परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इसके पश्चात महाष्टमी पूजा विधान निशा जात्रा पूजा विधान, मावली परघाव पूजा विधान,
भीतर रैनी, बाहर रैनी पूजा विधान, काछन जात्रा पूजा विधान, कुटुंब जात्रा पूजा विधान, के साथ ही मावली माता की विदाई पूजा विधान के साथ बस्तर दशहरा अपनी संपन्नता के साथ अगले वर्ष के लिए परायण होता है।