वैश्विक महामारी कोविड-19 के बीच अब प्रदूषण के रूप में एक और बड़ी चुनौती सामने आ रही है। कोरोना व प्रदूषण का संयुक्त हमला स्वास्थ्य के लिए ज्यादा घातक साबित हो सकता है, क्योंकि प्रदूषण के दुष्प्रभाव से सांस की बीमारियां व हार्ट अटैक का खतरा वैसे भी बढ़ जाता है। ऐसे में प्रदूषण बढ़ने पर सांस व दिल की बीमारियों से पीड़ित मरीजों को कोरोना संक्रमण होने की आंशका ज्यादा बढ़ सकती है। ऐसे में पहले से ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। इसमें मदद कर सकती है मास्क पहनने की आदत। मास्क पहनकर प्रदूषण व कोरोना संक्रमण, दोनों को मात दी जा सकती है।
बदलता मौसम बढ़ा रहा मुसीबत: राजधानी नई दिल्ली सहित देश के कई शहर दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हैं। महानगरों में जनसंख्या के साथ-साथ सड़कों पर वाहनों का दबाव भी बढ़ता जा रहा है, जिनसे निकलने वाला धुआं फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है। लॉकडाउन के दौरान शहरों की आबोहवा भी साफ हो गई थी मगर अनलॉक प्रक्रिया के बाद से वाहनों के आवागमन और औद्योगिक कार्यों में आई तेजी से प्रदूषण फिर बढ़ने लगा है। इसके अलावा अक्टूबर-नवंबर में अचानक प्रदूषण बढ़ने का एक बड़ा कारण पराली जलाना भी होता है। दरअसल, ठंडे मौसम में धूल कण वातावरण में ज्यादा ऊपर नहीं उठ पाते। इस वजह से सूक्ष्म कण व जहरीली गैसें वातावरण में बढ़ जाती हैं। लिहाजा, सांस लेने में परेशानी, आंखों में जलन व गले में खराश की तकलीफ शुरू हो जाती है।
फेफड़े हो रहे कमजोर: लंबे समय तक प्रदूषण से प्रभावित होने पर फेफड़े की कार्यक्षमता पर असर पड़ता है। प्रदूषण पीएम-10, पीएम 2.5 व अल्ट्रा पार्टिकल्स सांस के जरिए फेफड़े में प्रवेश करते हैं। इस वजह से सांस की नली व फेफड़े में सूजन होती है। इस कारण ब्रोंकाइटिस व अस्थमा का अटैक होता है। सीओपीडी (क्रोनिक ऑस्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) का भी बड़ा कारण प्रदूषण है। पीएम-2.5 और उससे छोटे कण रक्त में पहुंचकर धमनियों में ब्लॉकेज व हार्ट अटैक का खतरा बढ़ा देते हैं। इसी वजह से इस मौसम में हार्ट अटैक व स्ट्रोक के मामले अधिक सामने आते हैं। सर्दी का मौसम वायरस व बैक्टीरिया के लिए अनुकूल होता है। इस मौसम में फ्लू, निमोनिया आदि के मामले भी बढ़ जाते हैं।
बच्चों को ज्यादा खतरा: यूं तो प्रदूषण का असर हर उम्र के लोगों पर होता है, लेकिन बुजुर्गों व बच्चों की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने के कारण उन्हें खतरा अधिक होता है। भले ही कोरोना संक्रमण के मामलों में बच्चों को कम खतरा हो मगर प्रदूषण के चलते उनको अन्य तकलीफें हो सकती हैं। बच्चे यदि लंबे समय तक प्रदूषित वातारण में रहते हैं तो उनके फेफड़ों का विकास प्रभावित होता है और इसकी कार्यक्षमता उतनी नहीं रहती जितनी होनी चाहिए। जिससे 16-17 की उम्र में ही उन्हें सांस संबंधी तकलीफें हो जाती हैं। यहां तक कि कई शोधों में यह बात सामने आ चुकी है कि प्रदूषण के कारण गर्भपात व समय पूर्व (प्रिमैच्योर) प्रसव जैसी स्थिति भी बन जाती है। यदि गर्भवती महिला को पहले से फेफड़े की कोई बीमारी है तो प्रदूषण बढ़ने पर वह बीमारी बढ़ सकती है। इसलिए गर्भवती महिलाओं को घर से बाहर ज्यादा नहीं निकलना चाहिए।