झारखंड के 55 युगलों के लिए इस बार की बसंत पंचमी बेहद खास रही। ये युगल बरसों से लिव इन में रह रहे थे, लेकिन सामाजिक परंपराएं उनके रिश्तों को औपचारिक रूप देने में बाधक बनी हुई थीं। आखिरकार इस बार 16 फरवरी को उनके जीवन में सचमुच बसंत खिला। ये युगल औपचारिक रूप से परिणय सूत्र में बंध गए। इनमें कुछ युगल तो ऐसे हैं जो दादा-नाना बन चुके हैं।
बसंत पंचमी बिन मुहूर्त के विवाह का शुभ दिन माना जाता है। इस मौके पर सामूहिक विवाह होते हैं। झारखंड के गुमला जिले के बसिया ब्लॉक के सरना मैदान में भी इस अवसर पर विशेष सामूहिक विवाह रखा गया था। यहां ऐसे 55 युगलों की शादी हुई, जो सालों से सात फेरे लेने का इंतजार कर रहे थे। इनके विवाह बंधन में गरीबी और पुरानी परंपराएं रोड़े डाले हुए थीं। ये सालों से रहे थे पति-पत्नी की तरह लेकिन समाज में उन्हें इस रिश्ते की मान्यता नहीं मिल रही थी।
पंडित, पादरी, भगत ने कराए विवाह
स्वयंसेवी संस्था निमित्त के जरिए हुए इस समारोह में हिंदू युगलों का विवाह पंडित ने कराया तो ईसाई का पादरी ने। सरना युगल का जतरू भगत व चन्द्रमनि देवी ने कराया।
एनजीओ ‘निमित्त’ ने उठाया बीड़ा
इन रिश्तों को सामाजिक मान्यता दिलाने का बीड़ा एनजीओ निमित्त ने उठाया। निमित्त की सचिव निकिता ने बताया कि झारखंड के गांवों में सैकड़ों युगल ऐसे हैं, जिनका औपचारिक विवाह नहीं हुआ है। उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि ये युगल विवाह का खर्च उठा सकें।
जब तक भोज नहीं, मान्यता नहीं
देश के अधिकांश हिस्सों में विवाह उत्सव के रूप में होते हैं। इनमें प्रीतिभोज का बड़ा महत्व है। झारखंड भी इस परंपरा से अछूता नहीं है। यहां भी विवाह को तब तक सामाजिक मान्यता नहीं मिलती जब तक कि भोज नहीं कराया जाए। जो जोड़े भोज नहीं दे पाते हैं, उन्हें पति-पत्नी का सामाजिक दर्जा नहीं मिलता।
शादी में अजीब नजारे थे, बाप-बेटे ने लिए साथ फेरे
इस बसंत पंचमी पर हुए अनूठे सामूहिक विवाह में कई युगलों के जीवन में रंग भर गए। किसी विवाह मंडप में बाप- बेटे ने साथ में विवाह किया तो कोई अपने नाती-पोतों को गोद में लेकर फेरे ले रहा था।
40 साल से लिव इन में रह रहे थे
इस सामूहिक विवाद समारोह में 62 साल के पाको झोरा और 56 साल की सोमारी देवी सबसे उम्रदराज थे। दोनों 40 साल से लिव-इन में रह रहे थे। उनके बेटे जितेंद्र ने भी अपनी पत्नी के साथ सात फेरे लिए। चूंकि माता-पिता की औपचारिक शादी नहीं हुई थी, इसलिए उसे भी दंपती के रूप में मान्यता नहीं मिली थी।
दिव्यांग बिनु के लिए सपना थी शादी
दिव्यांग बिनु मुंडा और सुकृता कुमारी के लिए तो यह मौका यानी औपचारिक शादी एक सपना थी। इससे उनकी जिंदगी में रोशनी आई है।
बगैर मान्यता न संपत्ति में हक, न दफनाने की जगह
मान्यता नहीं मिलने के कारण महिलाओं व बच्चों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। उन्हें सरकारी योजना का लाभ नहीं मिलता। पुरुष की मृत्यु होने पर उसके बच्चों और पत्नी को संपत्ति में अधिकार नहीं दिया जाता। यहां तक कि बच्चों के कान तक नहीं छेदे जाते। महिलाओं की असामयिक मृत्यु पर उन्हें कब्रगाह में स्थान नहीं मिलता। बगैर विवाह के पत्नी के रूप में रहने वाली महिलाओं को ढुकनी व ऐसे पति को ढुकू कहा जाता है। ढुकनी का मतलब जबरन घर में घुसने वाली व ढुकू यानी जबर्दस्ती घर में घुसाने वाला।